भारतीय - आर्य भाषा | Bharatiya Arya Bhasha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मूल लेखक द्वारा भूमिका भारतीय-आयं भाषा जिसका मैं यहाँ विकास प्रस्तुत करना चाहता हूँ उन दो समुदायों में से एक की भाषा है जो भारतीय-ईरानी नाम से पुकारी जाने वाली प्रागेति- हासिक भारत-यूरोपीय भाषा और जिसे बोलने वालों के नाम के आधार पर आयें कह सकते हैं अ० ऐयें- पु० फ़ा० अरिय- सं० आय से निकले हैं। इस भाषा की विशेषताओं का उल्लेख मेइए (शट८ ) की पुस्तक दाइलेक्त आँदो-योरोपिएँ अध्याय २ में मिलेगा तुल० राइशेल्ट अवेस्त० एऐलीमें० ८। प्राचीनतम आय पोथियों से प्रकट होता है कि ये भाषाएँ उसी समय विभक्त हो गयी थीं और इनके प्रणेता ईरान की सीमा से लगे हुए भारतीय भूमि-भाग को छोड़ कर क्रमश ईरान और भारत में बस गयें थे। भारत से बाहर उपलब्ध उसके कुछ और प्राचीन किन्तु परोक्ष प्रमाण मिलते हैं । ईसा - पुर्वं चौदहवीं शताब्दी में फ़राओं से विवाह तथा राजनीति द्वारा संबंधित मितन्नी (उच्च फ़रात) के राजकुमारों के आर्य-पक्ष के नाम आरयों जसे मालूम होते हैं । उनमें से एक ने १३८० (ई० पू० ? -अनु०) के लगभग द्वित्ती राजा के साथ संघि करते समय अपने देवताओं का साक्षी रूप में आह्वान किया था जो इस प्रकार युग्म रूप में हैं मित्र और अरुण (वरुण ? -अनु०) इन्द्र और नासत्य ऋग्वेद में भी मित्र और वरुण दोनों साथ-साथ चलते हैं और अदिवन्‌ संबंधी ऋचा में एक स्थान पर इन्द्र नासत्या में दोनों संयुक्त रूप में मिलते हैं किन्तु ईरान में वरुण देवता नहीं हैं और अवेस्ता में नूअन्दैतय और इन्द्र असुर हैं । तब भी देवताओं के नाम ऐसे होते हैं जो सदव उधार लिये जा सकते हैं लेकिन हित्ती भाषा में अश्व-पालन पर लिखित एक पोथी में एक तीन पाँच सात नौ घुड़- दौड़ों का प्ररन है उन्हें प्रकट करने वाले शब्द आय हैं विशेषतः ऐक-वर्तन्न- एक चक्कर - एक संख्या में -क- प्रत्यय लगा कर बना है जो अब तक इस संख्या के लिए केवल संस्कृत में ज्ञात है। ः तो १४ वीं शताब्दी से पूर्व के एशिया माइनर में आर्यों का केवल चिह्न ही नहीं पाया जाता वरन्‌ वास्तव में उसी जाति के चिह्न मिलते हैं जो भारत में संस्कृत लायी । कितु अभी यह निश्चित करना असंभव है कि भारत पर आक्रमण बाद में हुआ अथवा बाद में




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