सूरसागर शब्दावली | Sursagar Shabdavali
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
37.77 MB
कुल पष्ठ :
383
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ग वस्त्र के पर्यायवाची शब्द के भ्र्थ में श्राया है-- यहैँ श्रोढ़ि जात बन यहँ सेज को बसन यहँ निवारिति मेह बूंद छाह घाम की । (२१३४) ३ २--थोड़े ही स्थानों में एक भ्रन्य शब्द परिधान (६४२) स० परिघानमू--वस्न धारण करना मिलता हू । श्रगा नामक वस्त्र के नीचे पहना जाने वाला एक बस्त्र परिधानी- यमु भी था । दूसरा उल्लेखनीय शब्द कापरा (६५८ २१३०) सं० कर्पट कर्पटमु है-- काढौ कोरे कापरा (श्ररु) काढ़ी थी के मौन । जाति-पाँति पहिराइ के (सब) करो छठी कौ चार । (६४८) भ्रथवा -- कापर दान पहिरि तुम शाए चलट्ठ जु मिलि उनही पै जैये जिनि तुम रोकन पथ पठाए (२१३०) । कर्पट प्राय. कपडे की चीर या पेबंद लगे पुराने कपड़े को कहते थे । गेरुए रंग के वस्त्र को भी कभी-कभी कर्पट कहते थे किन्तु वर्तमान काल में कपड़ा शब्द वस्त्र मात्र के श्रर्थ में प्रयुक्त होने लगा है । कोरा (६५८) सं० कुमार] बिना धुले नये वस्त्र या मिट्टी के बर्तन को कहते है । यह प्रायः ऐसे नये सूती वस्त्र के लिए श्राता हूं जिसमे बिना घुलें एक मटमेलापन होता हैं । इस प्रकार कोरा शब्द एक सीमित शझर्थ में कपड़े या मिट्टी के बर्तन के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने लगा। सूरसागर में भी कोरा शब्द इसी शथ्रर्थ में आया हैं काढ़ी कोरे कापरा (६५८) । मेरठ की बोली मे आज भी कोरा पिंड क्वाँरा के श्रर्थ में बोला जाता हैं । नये वस्त्र के लिए नये शब्द के भ्रतिरिक्त नूतन या नव भी आ्राया है-- तन पहिरे नूतन चीर (६४२) ।चीर उतारि वस्त्र नव पहिरो । (२१६६) । ३--पाखणिनिकालीन चीर (२४७ ६४२) सं० चीर] शब्द भी सुरसागर मे नेक बार प्रयुक्त किया गया है । पट शब्द प्राय. सारी या धोती के श्रर्थ मे भ्रधिक झाया हैं । प्रथम स्कध के द्रौपदी-चीर-हरण प्रसंग मे यह सारी के श्रर्थ मे हो मिलता है--एकै पीर हुतौ मेरे पर सो इन हरन चह्मौ । हा जगदीस राखि इहि श्रवसर प्रकट पुकारि कह्मी । (२४७) भ्रथवा-- भक्ति-हेत प्रहलाद उबार्यो द्रौपदि-चीर बढ़ायो । (२०) । दशम स्कन्घ में कृष्ण-जन्मोत्सव तथा श्रन्य प्रसंगों मे भी चीर कही-कहीं सारी था भ्रोढ़नी का भ्रर्थ देता हैं-- नव किसोरी मुदित हुवै हुवे गहति जसुदा पाइ। करि भलिंगन गोपिका पहिरे भ्रभूषन चीर । (६४४) या-- तन पहिरे नृतन चीर काजर नैन दिये । कसि कंचुकि तिलक ललाट सोभित हार हिये । (६४२) झथवा-- एकनि को गौदान समर्पत एकनि कौ पहिरावत चीर । एकनि को भूषन पाटम्बर एकनि कौ जु देत नग हीर । (६४२) । कृष्ण तथा बलराम मक्खन के लिए माता यशोदा से भऋगड़ रहे है-- १--प० सं० ध्या० ९७६१ रतनसेलि कहूं कापर झ्राये । २--हुषं० सां० झ० पृ० श्३्० ३--हिन्दी शब्दसागर के श्रनुसार कोरा दाब्द की उत्पत्ति संस्कृत केवल से है । उसमें भी कोरा का झर्थे नया श्रथवा श्रछुता मिलता है । ४-गीता श्र० २ इलोक २२-- नवानि युज्वाति नरोध्परारित । # -मानस बाल० २४८- कराह निछावरि सनि गन चीरा ।
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