जैनेन्द्र के कथा साहित्य में युगचेतना की अभिव्यक्ति के स्वरुप का अध्ययन | Jainendra Ke Katha Sahitya Me Yug Chetna Ki Abhivyakti Ke Swaroop Ka Adhyayan
श्रेणी : समकालीन / Contemporary, साहित्य / Literature

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22.73 MB
कुल पष्ठ :
252
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अभिव्यंजना करने वाली विधा है। कथा-साहित्य में लेखक की निजी धारणाओं एवं इच्छाओं के साथ-साथ युग का स्वरूप भी समाया रहता है। विश्व कथा-साहित्य का जन्म एवं विकास युग चेतना के समानान्तर ही हुआ है। कथा-साहित्य युग चेतना का संवाहक ही नहीं अपितु युग की गतिशीलता का भी चितेरा है। आज का जीवन उधल-पुथल और अऊन्त््न्द्ध भरा है। मानव मन की जटिलताएँ बढ गयी हैं। इस कारण युग चेतना भी असाधारण हो गयी है। कथाकार युग से प्रेरणा ग्रहण करता है तथा युग को प्रेरित भी करता है। वह जब युग का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है तो युग द्रष्टा की भूमिका में होता है और जब युग का काल्पनिक चित्र प्रस्तुत करता है तब भी वह युग द्रष्टा ही होता है। वह युग द्रष्टा और युग ख्रष्टा का सम्मिलित रूप होता है। प्रस्तुत अध्याय में कथाकार की चेतना का युग चेतना से सम्बन्ध का विवेचन किया गया है। युग चेतना का आशय उसका महत्व उसके विविध स्तर परम्परा और चेतना के अन्तर्सम्बन्ध पृष्ठभूमि और चेतना का अन्तर्स्म्बन्ध परम्परा और पृष्ठभूमि का अन्तर्सम्बन्ध तथा युग चेतना से साहित्य और समाज के जुडाव आदि के विवेचन का प्रयास किया गया है। कथा-साहित्य में युग चेतना का क्या स्वरूप है - इस विषय का भी विवेचन किया गया है। अध्याय दो का शीर्षक है- जैनेन्द्र के कथा-साहित्य मे युगीन सामाजिक चेतना । इसके अन्तर्गत कथाकार और समाज के पारस्परिक संबंध का. विवेचन किया गया है। मानव चतना समाज--सापेक्ष होती है और कथा-साहित्य मानव चेतना का संवाह्क होता है। साहित्य समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता। वह जीवन की परिकल्पनात्मक अभिव्यक्ति है और उसके द्वारा जीवन के सौन्दर्यात्मक पर
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