हम लोग | Hun Log

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Hun Log by हंसराज रहबर - Hansraj Rahabar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ हम लोग चिढ़ाने की कोशिश करती है जैसे वह उससे लड़ना चाहती हो । जब वह लड़ कर लौटती है तो उसके चेहरे पर संतोष की असाधा- रण झलक होती है जैसे उसकी आत्मा का कोई घाव भर रहा हो । खातून एक दुबली पतली औरत है । बात संक्षिप्त और सुलभी हुई करती हैं । सीना पिरोना करके अपना और अपनी लड़की का पेट पालती है । हाँ उसी की तरह दुबली पतली उसकी एक लड़की है । आयु बारह-तेरह साल की है । वह मोहल्ले के बच्चों से मिल कर खेला करती है । खातुन के आगे पीछे और कोई नहीं । बस बेटी ही है ओर वह उसे अपनी रूह की तरह प्यार करती है । उसे खेलते कूदते देख कर खुश होती है लेकिन गली के इधर उधर मौहल्ले में पुराने ढंग के रूढ़िवादी लोग बसते हैं । उन्हें इतनी बड़ी लडकी का खेलना कूदना बुरा लगता हू । चार पॉच दिन हुए में घर से लौट रहा था । देखा कि खातून के घर के सामने भीड़ लगी हुई है और गरमा-गरम गुफ्तगू हो रही है । गुफ्तगू का विषय खातुन की बेटी थी. खातून बेठी सुनती रही और सुन कर बोली-- आप बताएँ इस बेचारी को सारा दिन केसे इस अन्धेरी कोठरी में बन्द रखूं ? उसका घर तंग अन्घरी कोठरी ही तो है लेकिन मौहल्ले वालो को उसकी यह दलील कुछ जंची नहीं । उनके मुख्य वक्ता ने कहा-- हमारा कया है ? हम तुम्हारे भले की कहते है इस तरह फिरेगी तो जवान लड़की चौपट हो जाएगी । खातून और जुमियां के घर के सामने बनिए की दुकान है । दुकान का चबूतरा गली से काफी ऊंचा है । बनिया इस चबूतरे पर चौकड़ी मारे यों बैठा रहता है. जैसे भील के किनारे बगला । ग्राहक के अतिरिक्त वह किसी से बात नहीं करता । चाय की पुष़िया जो सौ डेढ़ सो कदम चल कर चार आने में मिलती है वह साढ़े चार आने की देता है । कोई एतराज करता है तो उन्हें वह जवाब देता है--




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