विशाखदत्त | Vishaakhadatt
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.94 MB
कुल पष्ठ :
110
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मातृ दत्त त्रिवेदी - Matri Dutt Trivedi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विशाखदत्त जीवनवृत्त और कृतित्व 15 की थी । मुद्राराक्षस के समान इसका भी विपय राजनैतिक है यद्यपि वैसी उदात्तता इसमें नहीं पायी जाती । संभवत यह नाटक छह या सात अंकों का होगा क्योंकि नाट्यदपंण में देवीचन्द्रगुप्तमू से जो नैँष्क्रासिकी श्रूवा ली गयी है उससे यही ज्ञात होता है कि नाटक अभी समाप्ति की ओर नही है। यह नैप्क्रामिकी ध्रूवा पब्चम अंक के अन्त में है। इस नाटक में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के द्वारा शकों की पराजय और सौराष्ट्र की विजय वर्णित है । गुप्तवंशीय सम्राटू रामगुप्त ने शकों की राजधानी गिरिपुर पर आक्रमण किया लेकिन वह शत्रुओं के चंगुल में फंस गये । शक-सम्रादु ने उन्हें इस शर्ते पर छोड़ना चाहा कि वह अपनी सुत्दरी पत्नी ध्रूबदेवी को शकराज को समपित्त करें। रामगुप्त के छोटे भाई चन्द्रगुप्त इस शर्त से बड़े ही करुद्न हुए और उन्होंने अपने बड़े भाई को मुक्त कराने की एक योजना बनायी । वह ध्युवदेवी के वेप में शत्रु के स्कन्धावार में गये और शक-तरपति को मार डाला पुन आक्रमण करके शकराज्य को जीत लिया । श्ंगारप्रकाश से इस आपय का एक उद्धरण मिलता है--स्त्रीवेप--मनिल्लू.तश्चन्द्रगुप्त शत्रो स्कन्धावारं गिरिपुरं शकपतिवधा यागमत् । इसी प्रसंग का उल्लेख बाण ने अपने हु्षंचरित के घष्ठ उच्छूवास में इस प्रकार किया है--अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनीवेषगुप्तश्च चन्द्रगुप्तः शकपत्तिमशातयत् । हर्पच रित के टी काकार शंकर ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया हैं-- शकानामाचायं णकाधिपति । चन्द्रगुप्तश्रातृजायां ध्वदेवी प्रार्थ- यमानधचन्द्रगुप्तेन . ध्ु.वदेवीवेपधारिणा .. स्त्रीवषजनपरिवृततेन रहसि व्यापादित । श्रीधरदास-प्रणीत सदुक्तिकर्णामृतम् में विशाखदत्त के नाम से एक घलोक दिया हुआ है जिसमें विभीषण रावण से राम की वीरता का वर्णन करते हुए कहता हैं-- रामोझ्सौ भुवनेपु विक्रमगुर्णयात प्र्सिद्धि परा-- मस्मदभाग्यविपयंयादू यदि पर देवो न जानाति तमू । बन्दीवैष यशांसि गायति मरुदू यस्यैकबाणाहृति । श्रेणीभुतविशालतालविव रो दुगी णे स्व रे सप्तशि ॥। (1/46/ 5) अर्थातु राम अपने पराक्रम-गुणों से सभी भुवनों में प्रसिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं लेकिन हमारे दुर्भाग्य से आप उन्हें नहीं जानते । उनके एक बाण के प्रहार से पंक्तिबद्ध विशाल (सात) ताल वृक्षों के छिद्रों से निकले हुए सप्तस्वरों से यह मरुत् 10. हफंचरित पू० (99-200) निर्णयलागर जेस बस्वई 1937
User Reviews
No Reviews | Add Yours...