बांडला साहित्य का इतिहास | Baandla Sahitya Ka Itihas

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निर्मला जैन -Nirmla Jain

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सुकुमार सेन - sukumar sen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मध्य भारतीय आर्य भाषाएँ (अधिक सही रूप में उपभाषाएँ) स्वभावत अपने डेढ़ सहस्राव्दी के इतिहास में संस्कृत के समान स्थिर नहीं रहीं । अपने प्राचीनतम रूप में जैसा कि ईसा पूर्व शताब्दियों के शिलालेखों से ज्ञात होता है मध्य भारोपीय भाषा संस्कृत का विकृत या सरलीकृत रूप प्रतीत होती हैं और उसकी उपभाषाएँ एक-दूसरे से इतनी सुनिश्चित रूप से अलग नहीं हुई थीं कि उनकी आपसी समझ समाप्त हो जाय। ईसा-पूर्व शताब्दियों के सभी शिलालेखों के रूप में प्राप्त अभिलेख मध्य भारतीय आर्य भाषा में लिखे गये थे। ईसा के बाद पहली दो शताब्दियों में मध्य भारतीय आर्य भाषा का प्रयोग एकान्तिक रूप से होता रहा किन्तु इन अभिलेखों में संस्कृत पदावली के उत्तरोत्तर बढ़ते प्रभाव को क्रमशः लक्ष्य किया जा सकता है। इससे यह संकेत मिलता है कि उस समय मध्य भारतीय आर्य भाषा बड़ी तेज़ी से प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के ढौंचे से पीछे हट रही थी और तब मध्य भारतीय आर्य उपभाषाओं के बीच आपसी समझ समाप्त होती जा रही थी । 400 ई. तक आते-आते संस्कृत सर्वोच्च भाषा हो गयी और इस समय तक कतिपय साहित्यिक मध्य भारतीय आर्य बोलियोँ अपने बोल-चाल के आदर्शों से हट गयीं और उन्होंने एक स्थिर साहित्यिक रूप का विकास कर लिया। परन्तु इससे बहुत पहले मध्य भारतीय आर्य भाषा ने संस्कृत के व्यापक प्रभाव के अन्तर्गत एक सशक्त साहित्यिक भाषा का विकास कर लिया था। यह भाषा दक्षिणी बौद्धो की पालि थी। पालि का आधार एक पश्चिमी या मध्य-पश्चिमी उपभाषा है। लेकिन बौद्ध मत के बाहर इस भाषा का एक अपेक्षाकृत सरल रूप आर्यभाषी भारत में सर्वत्र सामान्य भाषा के रूप में प्रयुक्त होता था। यह सामान्य साहित्यिक भाषा उड़ीसा में भुवनेश्वर स्थित उदयगिरि की गुफा मे खारवेल (ई. पू. प्रथम शताब्दी) के शिलालेख में मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसका विकास मालवा में (उज्जैन-भेलसा प्रदेश) हुआ। यह प्रदेश न केवल वाणिज्य और विदेशी सम्पर्क का केन्द्र था बल्कि साथ ही धर्म और संस्कृति का भी केन्द्र था। विभिन्‍न मध्यभारतीय आर्य उपभाषाएँ बोलने वाले और भारत के बाहर और भीतर दूसरी भाषाएँ बोलनेवाले लोग यहाँ एकत्र होते थे इसलिए इस प्रदेश में एक सामान्य भारतीय भाषा के विकास की तत्काल आवश्यकता थी। इस सम्बन्ध में यह बात स्मरणीय है कि पालि विशेष रूप से पिछले दौर में केवल दक्षिणी बौद्धों द्वारा प्रयोग में लायी जाती थी जिनमें से अधिकांश भारतीय आर्य-भाषा-भाषी नहीं थे। द्रविड़ भारत में हमेशा से दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाषा-कूल रहा है हा के बहुत-से शब्द द्रविड़ से आये हैं और संस्कृत के संरचनात्मक विकास में द्रविड़ के प्रभाव की उपेक्षा नहीं की जा सकती । यह बात काफी हद तक ठीक ह कि द्रविड़ भाषाओं के संघात ने ही भारतीय आर्य भाषा के प्राचीन से मध्य स्थिति में परिवर्तन को बहुत दूर तक प्रभावित किया । यह स्वीकृत तथ्य है कि संस्कृत में द्रविड़ 14 / बाडूला साहित्य का इतिहास




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