द्वारकानाथ टैगौर | Dvaarakaanaath Taigor
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14.4 MB
कुल पष्ठ :
312
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आख्यानों के अनुसार 3 चीनी यात्री हवेनत्सांग दोनों ने अपने वृतान्तों में शशांक का उल्लेख किया है यद्यपि यह उल्लेख प्रशंसात्मक नहीं है और उसे बौद्ध-धर्म का दुश्मन बताया गया है। कहा जाता है कि उसने गया में स्थित बोधि-वृक्ष को कटवा दिया था और पड़ौस के मंदिर में बुद्ध की प्रतिमा को हटवा दिया था। हवेनत्सांग के वृतान्त के अनुसार यह सुन कर कि उसके आदेश का पालन कर दिया गया राजा शशांक भय से आक्रान्त हो गया उसके शरीर में घाव फूट निकले मांस गलने लगा और कुछ समय के अंदर ही उसकी मुत्यु हो गई। डा ० मजूमदार ने टिप्पणी की है कि इस आख्यान की एक अनुगूंज उन बंगाली ब्राहमणों के यहां प्राप्त वंशावली संबंधी वृत्तों में भी मिलती है जो अपने आप को सरयू नदी के तट पर रहने वाले और वेदों के ज्ञाता बारह ब्राहमणों का वंशज बताते हैं जिन्हें शशांक ने मंत्रपाठ द्वारा उसको रोगमुक्त करने के लिए बुलाया था। इस वृतान्त के अलावा जो बौद्ध स्रोतों पर आधारित है और भी अनेक वृतान्त मिलते हैं जो ब्राहमण-धर्मों स्रोतों पर आधारित हैं जिन्हें आम तौर पर अधिक स्वोकार किया जाता है यद्यपि उनकी भी ऐतिहासिक प्रामाणिकता उतनी ही संदिग्ध है। ये स्रोत कु्लजी के नाम से प्रसिद्ध वे वृतान्त हैं जिनमें ब्राहमण कुलों और दूसरो प्रमुख जातों के कुलों को वंशावलो दो गई है। ये कुलजी पंद्रहवां सदी के उत्तरा्ध में रचो गई थां और प्रायः पाण्डुलिपियों के रूप में हो उपलब्ध हैं। प्रसिद्ध इतिहासकारों के अनुसार इनके पाठ में अनेक तर।कों से हेरफेर किया गया है और प्राचान लेखकों के नाम से प्रचलित अनेक विवरणों को प्रामाणिकता के बारे में संदेह करने के पर्याप्त आधार मौजूद हैं। ये सभा कुलजी बंगालो ब्राहमणों को दो प्रमुख शाखाओं पश्चिम बंगाल के राड़िया और उत्तरां बंगाल के वारेन्द्र को उत्पत्ति उन पांच ब्राहमण पूर्वजों से बताते हैं जिन्हें राजा आदिसुर बंगाल में लाया था। इस राजा के अस्तित्व और शासन-काल के बारे में कोई निश्चित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता । अलग- अलग लोगों के अनुसार उसका शासन-काल आठवीं और दसवीं सदी के बीच बताया जाता है। ठाकुर परिवार के संस्मरणों में जेम्स फरेल ने लिखा है प्रसिद्ध विद्वान राजेन्द्रलाल मित्र का सुझाव है कि वीर सेन सं भवत सन् 994 में गदूदी पर बैठा था और वह आदिसुर का उत्तराधिकारी नहीं बल्कि स्वयं आदिसुर ही था। कहा जाता है कि आदिसुर ने एक बौद्ध राजा से बंगाल जीता था। गौड़ का दरबार इतने लम्बे काल तक बौद्ध धमाविलम्बी रहा था कि उस अवधि में आमतौर ब्राहमण-धर्मों संस्थाओं का हास हो जाना अनिवार्य था। आदिसुर एक पुत्र का वरदान पाने के लिए विधिवत ढंग से वैदिक यज्ञ करने को उत्सुक था (कुछ विवरणों के अनुसार दुर्भिक्ष से अपने राज्य को बचाने के लिए) लेकिन उन दिनों चूंकि उसके राज्य में ऐसे ब्राह्मण नहीं थे जो वैदिक रीतियों के पूर्ण ज्ञाता हों और जिनमें यज्ञ सम्पन्न करने की योग्यता हो इसलिए आदिसुर ने
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