महादजी सिन्धिया | Mahadji Sindhia

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Mahadji Sindhia by श्री सम्पूर्णानन्द - Shree Sampurnanada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रस्ताचना 1 व पारस्परिक देप विधयपरता और कर्तव्यविमुखताने इसके पूर्व एठानोंको चौपट किया था वह मुगठोंमें भी आगई थी । झाहजहाँके उत्तराधि- कारी सप्रादू औरड्लजेब विपय-ठोठप न थे और जिस बातकों अपना कर्तव्य समझते थे उसका पाठन भी इढ़तासे करते थे पर उनमें धर्म्मन्घताका महा दूपण था इस कारण मे अपने कर्तब्यको पहिचा- ननेमें प्राय सदैव ही भूठ करते थे । इसका परिणाम यह होता था कि उनका और साम्राज्यका बल व्यर्थक कार्मेमि ठगाया जाता था और अन्तमें परिताप ही हाथ आता था इसका सबसे अच्छा उदाहरण वह व्यवह्वार है जो सन्नाटने हिन्दु- शोकि साथ किया | अकबरके समयसे धीरे धीरे विजित और विजेताका बैपम्य मिट रहा था और एक निष्पक्ष झासनकी उन्रच्छायामें रहकर हिन्दू सुसछमान एकरा््र वन रहे थे । कुछ छोग कहते हैं कि भारत कभी एक देश एक राष्ट्र न था परन्तु इतिहासवेत्ताओंका कथन है कि प्राचीनकालसे ही भारतमें राषट्रभाव चढा आता हैं और बीचवीचमें दब जानेपर भी अवसर पाकर फिर जाग उठता है । सऔरट्जेबके पहलेका समय इस भावके जागरणका था । उत्तर- भारतमें अपना अधिकार जमाकर मुगछ ठोग धीरे धीरे दक्षिणकी ओर बढ़ रहे थे औौर ऐसा प्रतीत होता था कि कुछ कालमें सारा देश एक ही शासनका चशवर्त्ती हो जायगा पर भावी कुछ और थी । औौरज्लजेबने यह न होने दिया | इसमें सन्देदद नहीं कि वीजापुरका राज्य मुगढठ- शासनमें आ गया पर साथ ही राजपूताने और घुन्देखखण्डका बहुतसा भाग स्वतंत्र हो गया और देपपर सम्रादका अधिकार अत्यन्त कम रह गयाय ः




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