गीता का भक्ति योग | Gita Ka Bhakti Yog

Gita Ka Bhakti Yog by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उालाका माक्कयाग एवम्‌ सततयुक्ता इस श्रकार निरन्तर आपमें ठगे हुए भगवानमें अतिशाय श्रद्धावानू साधक भक्तका एकमात्र उद्देइ्य भगवत्राप्ति रहनेसे उसकी प्रत्येक क्रियामें ( चाहे भगवत्सम्बन्धी लप-ध्यानादि हो अथवा व्यावहारिक--शारीरिक और आजीविका-सम्बन्धी ) उसका. नित्प-निरन्तर सम्बन्ध भगवानसे बना रहता है। ऐसे साधक भक्तोंका वाचक ्सततयुक्ता पद है । साधककी यही वड़ो भारी भूठ होती है कि वह भगवानका जप-स्मरण-ध्यानादि करते समय तो अपना सम्बन्ध भगवानसे मानता है और व्यावहारिक क्रियाओंको करते समय अपना सम्बन्ध संसारसे मानता है । इस भूखका कारण समय-समयपर होनेवाठी उसके उद्देद्यकी मिन्नता है । नवतक बुद्धिमें धन- माष्ठि मान-माप्ति कुडम्ब-पाठनादि भिन्न-भिन्न उद्देश्य वने रहते हैं तबतक उसका सम्बन्ध निरन्तर भगवानके साथ नहीं रहता 1 यदि वह अपने लोवनके एकमात्र उद्देदय भगवस्राष्तिको मठी- भाँति पहचान ले तो उसकी प्रत्येक करियाका उद्देश्य भगवल्माप्ति ही हो जायगा । छोगोंको चाहे ऐसा दीखे कि भगवानका जप- स्मरण-ध्यानादि करते समय उसका सम्बन्ध भगवानसे है और व्यावद्दारिक कियाओको करते समय भगवानसे नहीं है परंतु एकमात्र भगवद्माप्ति हो लक्ष्य रहनेके कारण वह नित्य-निरन्तर मगवानमें गा हुआ ही है । पे




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