महाराजा महादजी सिन्धिया | Maharaja Mahadji Sindhiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्ररतावना । डे कि जय जि पर दशा ऋरलथरायर रा आथप्जथ्ाण है. जप महाराज भी इनकी मुट्दीमें थे । इनकी यह महत्त्वाकांक्षा थी कि छत्र- पति शिवाजीने जिस कार्य्यकी नीव डाठी थी वह सम्पूर्ण किया जाय अर्थात्‌ भारतमें फिरसे हिन्दू-साम्राज्य स्थापित किया जाय | इसी उद्दे्यसे इन्होंने मराठी सेनाको उन्नति देना आरम्भ किया । इस सेनाके दो प्रधान विभाग थे। एकमें तो बारगीर अर्थात्‌ सिपाही थे । ये नियत वेतन पाते थे और पेशवाके अधीन थे । दूसरा विभाग दिलछेदारोका था । ये दिठेदार लोग एक प्रकारके स्वतंत्र सेनानायक होते थे । ये आप अपनी सेनाएँ सड़ठित करते थे। इनको कोई नियत वेतन नहीं मिलता था पर जो कुछ छूठमें मिलता वह इनको और इनके अनुयायियोकों मिलता था । इसके अतिरिक्त इनको जागीरे भी मिलती थीं | इन शिडेदारोसे मराठा राज्यकी बड़ी उन्नति हुई पर अन्तमे यही एक प्रकारसे उसके हासके भी साधन हुए । जिन दूर दूरके प्रान्तोपर मराठे धावा मारते थे उन सब पर जमकर झासन करना उनके लिये असम्भव था | इस छिये वे एसी चेटा ही न. करते थे प्रत्युत दूरस्थ प्रान्तोके नरेशी और शासकोसे चौथ ( या उनके वार्षिक आयका चतुर्थाश ) लेकर उनके प्रदेशोको छोड़ दिया करते थे । इससे उनका आाधिपत्य भी बढ़ता जाता था आर शासनप्रबन्वका झगड़ा भी न करना पड़ता था । सं० १७८४ में पेशवाने रानोजी शिदे मलारिराव होर्कर आर ऊदाजी पवार नामक दडिलेदारोको मालवा प्रान्त विजय कर- नेके ठिये भेजा । उस समय राजा गिरिघिर राय नामक एक व्यक्ति यहाँका सूबेदार था । कुछ काछमे सारा मालवा मराठोंके हाथमे आ गया और इन शिलेदारोकों इसके टुकड़े जागीरमें मिले । इन्ही




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