विवेकानन्द साहित्य जन्मशती संस्करण खंड 2 | Vivekanand Sahitya Janmshati Sanskaran Khand 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द रे सनुष्य का ययाथ स्वरूप रगने से स्मृति-लोप हो जाने पर, वह नष्ट हो जाता और हमारा बिल्कुल छोप हो जाता! बचपन के, पहले दो-तीन वर्षों का मुझे कोई स्मरण नहीं है और यदि स्मृति और अस्तित्व एक है, तो फिर कहना पड़ेगा कि इन दो-तीन वर्षों में मेरा अस्तित्व ही नहीं था। तब तो, मेरे जीवन का जो अंश मुझे स्मरण नहीं; उस समय मैं जीवित ही नहीं था--यही कहना पड़ेगा। यह बात “व्यक्तित्व के बहुत संकीर्ण अये में है। हम अभी त्तक “व्यक्ति” नहीं हैं। हम इसी “व्यक्तित्व” को प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और वह अनन्त है, वही मनुष्य का प्रकृत स्वरूप है। जिनका जीवन सम्पूर्ण जगतू को व्याप्त किये हुए है, वे ही जीवित हैं, और हम जितना ही अपने जीवन को शरीर आदि छोटे छोटे सास्त पदार्थों में वद्ध करके रखेंगे, उतना ही हम मृत्यु की ओर अग्रसर होंगे। जितने क्षण हमारा जीवन समस्त जगत में व्याप्त रहता है, दूसरों में व्याप्त रहता है, उतने ही क्षण हम जीवित रहते हैं। इस क्षुद्र जीवन में अपने को बद्ध कर रखना तो मृत्यु है और इसी कारण हमें मृत्यु-भय होता है। मृत्युलभय तो तभी जीता जा सकता है, जब मनुष्य यह समझ ले कि जब तक जगत्‌ में एक भी जीवन शेष है, तब तक वह भी जीवित है। ऐसे व्यक्तियों को यह उपलब्धि होती है कि मैं सब वस्तुओं में, सब देहों सें वर्तमान हूँ । सब प्राणियों में मैं ही बतेमान हूँ। मैं ही यह जगत्‌ हूँ सम्पूर्ण जगत्‌ ही मेरा शरीर है! जव तक एक भी परमाणु छेष है, तव तक मेरी मुत्यु कहाँ? कौन कहता है कि मेरी मृत्यु होगी? तब ऐसे व्यक्ति नि्भय हो जाते हैं, तभी यह निर्भीक अवस्था आती है। सततत परिणामशीरू छोटी छोटी वस्तुओं में अविनाशत्व कहना भारी भूल है। एक प्राचीन भारतीय दाशेनिक ने कहा है कि आत्मा अनन्त है, इसलिए आत्मा ही “व्यक्ति--अविभाज्य' हो सकती है। अनन्त का विभाजन नहीं किया जा सकता--अनन्त को खण्ड खण्ड नहीं किया जा सकत्ता। वह सदा एक, अधिभक्त समष्टिस्वरूप, अनन्त आत्मा ही है और वही मनुष्य का यथाथें “व्यक्तित्व' है, वही “प्रकृत मनुष्य' है। “मनुष्य के नाम से जिसको हम जानते हैं, वह इस “व्यक्तित्व' को व्यक्त जगत्‌ में प्रकाशित करने के प्रयत्न का फल मात्र है; “क्रमविकास' आत्मा में नहीं है। यह जो सब परिवर्तन हो रहा है--वुरा व्यक्ति भला हो रहा है, पशु मनुष्य हो रहा है--यह सब कभी आत्मा में नहीं होता। कल्पना करो कि एक परदा मेरे सामने है और उसमें एक छोटा सा छिद्व है, जिसमें से मैं केवल कुछ चेहरे देख सकता हूँ। यह छिद्ध जितना वड़ा होता जाता है, सामने का दृश्य उतना ही अधिक मेरे सम्मुख श्रका- शित होता जाता है, और जब यह छिद्र पूरे परदे को व्याप्त कर लेता है, तव मैं रन




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