कंकाल | Kankaal

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Kankaal by जयशंकर प्रसाद - jayshankar prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अब शीत की प्रबलता हो चली थी । उसने चाहा, खिड़की का पत्ला बन्द कर ले । सहसा किसी के रोने को ध्वनि सुनाई दी । किशोरी को उत्कंठा हुई, परन्तु बया करे, “बलदाऊ' बाजार गया था । चुप_रही । थोड़े ही समय में बल- दाऊ भाता दियाई पडा । आते ही उसने कहा--बहूरानी, कोई गरीब स्त्री रो रही है । यही नीचे पड़ी है। किशोरी भी दुःखी थी । संवेदना से प्रेरित होकर उसने कहा--उसे लिवाते क्यो नहीं आये, कुछ उसे दे दिया जाता । बलदाऊ सुनते ही फिर नीचे उतर गया । उसे बुला लाया । वह एक युवत्ती विधवा थी ! विलख-बिलखकर रो रही थी । उसके मलिन वसन का अंचल तर हो गया था । किशोरी के आश्वासन देने पर वह सम्हली और बहुत पूछने पर उसने अपनी कथा सुना दी--विधवा का नाम रामा है, वरेली की एक श्राह्मण- वचन है। दुराचार का लांछन लगाकर उसके देवर ने उसे यहाँ लाकर छोड़ दिया । उसके भ्ति के नाम की कुछ भूमि थी, उस पर अधिकार जमाने के लिए उसने यह कुचेक्र रचा है। किशोरी ने उसके एक-एक अक्षर पर विश्वास किया; क्योंकि घह देखती है कि परंदेश में उसके पति ने ही उसे छोड़ दिया और स्वयं चला गया । उसने कहा--तुम घबराओ मत, मैं यहाँ अभी कुछ दिन रहूँगी । मुझे एक ब्राह्मणी चाहिए ही, तुम मेरे पास रहो । मैं तुम्हे बहन के समान रक्खूंगी । रामा कुछ प्रसन्न हुई । उसे आश्रय मिल गया । किशोरी शैया पर लेटे-लेटे सोचने लगी--पुरुप बडे निर्मोही होते हैं, देखो वाणिज्य-व्यवसाय का इतना लोभ कि मुझे छोडकर चले गये । अच्छा, जब तक वे स्वयं नहीं आयेंगे, मैं भी नहीं जाऊँगी । मेरा भी नाम “किशोरी है !--यहीं चिन्ता करते-करते किशोरी सो गई । दो दिन तक तपस्वी ने मन पर अधिकार जमाने की चेष्टा की; परन्तु वह असफल रहा । विद्वत्ता के जितने तर्क जगत को मिथ्या प्रमाणित करने के लिए थे, उन्होंने उग्र रूप धारण किया । वे अब समझाते थे--जगत्‌ तो मिथ्या है हो, इसके जितने कर्म हैं, वे भी माया है । प्रमाता जीव भी प्रकृति है, क्योकि वह भी अपरा प्रकृति है । जब विश्व मात्र प्राकृत है, तब इसमें अलौकिक अध्यात्म कहाँ । यहीं खेल यदि जगत बनानेवाले का है, तो वह मुझे बेलना ही चाहिए । वास्तव मे गृहस्य न होकर भी मैं वही सब तो करता हूं जो एक संसारी करता है--वही कंकाल : ईद




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