किरातार्जुनीय महाकाव्य | Kiratarjuniya Mahakavya

Kiratarjuniya Mahakavya by महाकवि भारवि - Mahakavi Bharavi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रे ) अर्जुन वी युक्ति एव तरकों से पूर्ण विनीत वाणी को सुनकर देवराज परम प्रसन्न हुये और उन्होंने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया । उन्होंने दिव्यास्त की प्राप्ति के निमित्त शिव जी की आराधना करने के लिए अर्जुन को परामर्श दिया । अब देवराज इन्द्र की आराधना के अनत्तर अर्जुन ने बही रह कर शिव जी की आराधना आरम्भ कर दी । इस प्रथम सफलता ने उनके उत्साह को द्विगुणित कर दिया था । वह तन-मन वी सुधि भूलकर तपोमय हो गए । उन्होंने ऐसी उत्कट तपश्चर्या की कि उनके तेज से आस-पास के सिद्ध एव तपस्वी गण जलने से लगे। उन्हें यह अपूर्व अनुभव हुआ और वे दौड़ कर आशुतोप शकर की शरण मे पहुंच कर अपने भुलसे हुए शरीरों को दियलाते हुए अपनी मनोवेदना प्रकट करने लगे । शिव जी को सब कुछ मालूम हो गया, उन्होंने कहा--साधको ! वह कोई साधारण तपस्वी नहीं है । वह पाडुपुत्र अर्जुन है, उसे साक्षात्‌ नारायण का अश समको । चलो, मै तुम लोगो को उसके अतुलित वल-पौरुप एवं अदुभूत कप्टसहिप्णु स्वभाव का परिचय दिलाता हूँ । इस काम के लिए यह अच्छा अवसर है । मूक नामक दानव को अर्जुन की इस विकठ तपस्या का पता लग गया है । वह समझ गया है कि अर्जुन की इस तपस्या के सफल हो जाने से सत्पुरुपा को लाभ और दुप्ट-दुरात्माओ वी अपार स्वार्थहानि होगी । अतएव वह ऋूर दानव मायामय वराह का रूप धारण कर अर्जुन को मारने के लिए दौडा जा रहा है । चलो, वह तमाशा भी तुम लोगों को हम दिखा दें । यह कह कर भगवान्‌ शड्ूर ने अपने गणो के सडद्ध किरातों के सेनापति का वेश घारण किया । उनके असख्य प्रमथ गण भी विरात वेश मे उन्ही के साथ-साथ चल पड़े । शिव जी की वह सेना गड्धा के किनारे उतर पड़ी, जहाँ से अर्जुन का आश्रम बहुत समीप था 1 इसी बीच पवेतावार वराह का वेश धारण कर वह मूक दानव अर्जुन वी. ओर तीव्रता से दौड़ पटा । पहले तो अजुन ने यह समभ कर उपेक्षा वरनी चाही नि यह कोई सावारण वराह होगा, किस्नु जब बहू बहुत समीप आते लगा और उसकी विकराल हिंत्र चेप्टा प्रकट होन लगी तव अर्जुन ने उसे असाधारण वराह समभ कर उस पर वाण-प्रहार क्या ।




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