कल्याणकारी - प्रवचन | Kalyankari-pravachan

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Kalyankari-pravachan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( दंड देखें? वह सबका जाननेवाला जानने में आता नहीं, किन्तु कह प्राप्त है । जो प्रतीति है यानी जो प्रतीत हो रहा है, उसका सम्बन्ध था नहीं, रहेगा नही और वर्तमान में भी निरन्तर वियोग में जा रहा है। इस बात की आपके सामने कई वार पुनरावृत्ति हुई है। जो दीखता है वह प्रतिक्षण बदल रहा है। यह कोई 'अपरिचित बात नही है, सीघी-सादी सबके प्रत्यक्ष अनुभव की बात है । दुद्य हरदम बदलता हैं । वह रहता कहाँ है? वह यदि रहता तो बदलता कैसे ? बदले तो रहता नहीं । प्रतीति मात्र बदलती है, रहती नहीं । यह बात हम अच्छी तरह जानते हैं, पर जानते हुए भी मानते नहीं । इसको (प्रतीति को) तो “है” मान लेते हैं । और जिस “है” यानि प्राप्त तत्त्व से ये सब प्रकाशित हो रहे है, जिस “है” के आधार पर ये दिख रहे है--जो आधार है, उस “है” को प्राप्त करने मे हमने बड़ो कठिनता मान ली । इसको प्राप्त करने में बड़ी कठिनता है ! वड़ा भाइचयं है। भरे वह तो “है” और “नित्य प्राप्त” है । वह वो “है” ही, वह कभी अप्राप्त होता ही नही । “जासु सत्यता ते जड़ माया, भास सत्य इव मोह सहाया” ! जिसकी सत्यता से यह असत्‌ जड माया सत्य दोखती है, मूढ़ता के कारण सत्य की तरह दीखती है, सत्य है तो नही । मूढता के कारण सत्य भले ही दिखे, पर है नही । दिखनेवाली इन्द्रियाँ मन, वुद्धि और दिखनेवाला संसार सब एक जाति के हैं। और इनको जाननेवाला जीवात्मा भर संसार मात्र को जाननेवाला परमात्मा इनका प्रकाशक और संसार मात्र का प्रकादाक--इन दोनों की वात्विक एकता है। और वह नित्य प्राप्त है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वुद्धि, संसार--ये सब नित्य ही अप्राप्त हैं । क्योंकि, ये प्रतिक्षण बदरूते हैं। यह सब बह रहा है ।




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