महामंत्र की अनुप्रेक्षा | Mahamantra Ki Anupreksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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3 जाता है वे पंच परमेष्ठि भगवान्‌ सांसारिक सुख को तृणवत्तु समक्ष उसका त्याग करने चबाले हैं एव मोक्ष सुख को प्राप्त करने हेतु परम पुरुपार्ध करने वाले हैं । नमस्कार जसे सासारिक सुख को वासना एवं तृष्णा का त्याग करवाता है वैसे ही मोक्ष सुख की ब्रमिलाषा एवं उसके लिए सर्वे प्रकार के प्रयत्न करना इसिखाता हैं । नमस्कार पाप में पाप-वुद्धि एव घर्म मे घर्म बुद्धि सिखाने चाला होने से मिध्यात्वदाल्य नाम के पाप स्थानक को उच्छे- दित कर देता है एव शुद्ध देव, गुरु तथा घर्म के ऊपर प्रेम जाग्रत कर सम्यक्त्व रत्न को निर्मल बनाता है । नमस्कार से सांसारिक विरक्ति जागती है, जो लोभ, कपाय को नष्ट अष्ट कर देती है एव नमस्कार से भगवद्‌ू बहुमान जाग्त होता है जो मिथ्यात्वजल्ण को टूर कर देता है । राग-दोष का प्रतिक़ार ज्ञान-गुण के द्वारा होता है ज्ञानी पुरुष निष्पक्ष होने से स्वय मे निहित दुष्कृत्यो को देख सकता है चिरन्तर उसकी निन्दा गहीं करता है एव उससे स्वय को श्रात्मा को दुष्कृत्यो से उवार लेता है । देप-दोष का प्रतिकार दर्थन गुण द्वार होता है । सम्यकू दर्गन गुण को घारण करने चाला पुण्याह्मा नमरकार मे स्थित अअरिहत्तादि गुणों को, सत््कर्मों को एवं ब्रिण्व-व्यापी उपकारों को देख सकता है । श्रत्त. उसके चिपय मे झ्ानन्द को धारण करता है । सत्कर्मों एव गुणों की अचुमोदना तथा प्रथसा द्वारा स्वय की श्रारमा को सन्मार्गाभिमुख कर सकता है 1 ज्ञान-दर्शन गुण के साथ जब चारित्र गुण मिल जाता है तत्र मोह दोष का समुल नादा हो जाता है । मोह दूर हो जाने से पाप मे निष्पापिता एव घर्मो मे अकतंव्यता की वुद्धि दूर हो जाती है । उसके टूर हो जाने से पाप मे प्रवर्तन एवं घर्म मे प्रमाद एव




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