भगवान वासुदेव | Bhagwan Vasudev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समुण तत्व १४ बैंठनेका संकल्प करते ही कपि-समूह कोमल किसलयका आस्तरण प्रस्तुत कर देता था किन्तु उनमें किसीकी दृष्टि इस सतत चलते आयोजनपर पड़ी ही चहीं । उन्होंने तो स्नानोपासनाके अनन्तर रीछोकें लाये कन्द-फलोका उपहार भी यदा- कदा ही स्वीकार किया भीर बहू भी लानेवालेके स्नेहको मात्र सत्कृत करनेके लिए । वे भगवन्मय भगवत्प्राण--अहनिणि वे तन्मय रहे और उनकी चर्चासि दिशाएँ परिपूत होती रही । उनकी चर्चा चिरमित हुई गड्ाह्वार पहुँचकर । वहाँ उद्धवने विदुरसे अनुमात ली --दोनो भरुजा फंलाकर मिले । विदुरजी चलने गये मैवेयाश्रमकी ओर और उद्धवने बदरीवनकों प्रस्थान किया । वह नित्यवाणी--ववह अन्तरालकों अब भी पावन बना रही है । भाप एकाय्र हो -श्रीकृष्ण कृपा करें तो भसम्भव नहीं कि आप उसे आज भी सुन सके । समगुण तत्त्व जगत और जीवन सदासे धर्म एव दर्णनकी समस्या है। यह जो कुछ ससार दीखता है क्या है ? क्यो है इसका आधार कर्ता प्रेरक कौन है? कसा हैं ? साथ ही हमारा अपना जीवन-हम स्वथ क्या है क्या उदहष्य है इस जीवनका हु जगतको हम अपनी ज्ञानेन्द्रियोसे जँसा देखते है वह वैसा ही है या नही -कोई उपाय यह जाननेका नही है। सब प्राणी जगतको ऐसा ही नहीं देखते । जन्मान्धके लिए रूपका - रगोका अस्तित्व ही नहीं हैं। ऐसे ही जिन प्राणियोमें घ्लाणेन्द्रिय या श्रव्णेन्द्रिय नही है उनके लिए गेन्घ अथवा णव्द नही है । इन्द्रियोकी शक्ति वाह्म साधनोसे अथवा योगसे वढायी जा सकती है किन्तु अन्तत जगतके देखनेका माध्यम इन्द्रियाँ ही रहेगी । ः




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