ब्रह्मवाद | Brahamvad
श्रेणी : आलोचनात्मक / Critique
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.19 MB
कुल पष्ठ :
118
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ब्रह्मवाद शप्ण चर्णन श्रीमद्धागचतमें है इसलियि इसे प्रथम नमस्कार क्या है । असन्तानन्द विविध विशेषयुक्त वह पुरुपोत्तम जब ॒ चाहा रमण करना चाहता है जब श्रुतिशास्त्रोकों सार्थकता देना चाहता हैं जच चद्द अपनी सता सिद्ध कराना चाहता हैः जब अपने खरूपका आप ही आनन्द लेना चाहता है अर्थात् जब चह जगतकी रचना करना चाहता हे तब सबसे पहले सूखरूप घारण करता है । यह मूलरूप चरणारवघिन्द अक्र है. । सर्वत्र घविष रहनेते इसे विग्णु और महाचिप्पु भी कहा है 1 चह सबका मूख था यह सुष््रिका सूल है । ढोनों सूलरूप हैं 1 स्रि भी दोनोंसे होती है । तदनन्तर इसी सूख्रूपकों सटि स्थिति) प्रलय भोग और मोंसत देनेके लिये सूल सम्रि-व्यष्टि अन्तयीमी और फलरूप चनाता है । अथात् उस प्रधानाश्नरका पहला रूप मूल है दूसरा सम्रि पुरुप ( घ्रह्माण्डसहित ) भगवान.। तीसरा व्यप्टि ( अनन्त दोनों तरददक्ते जीव पिण्ड ) चौथा अन्तर्यामी और पॉँचवों ( सम्रि-्यप्रि) फल | यह सूल स्टिके पूर्व असड) उदासीनः अब्यय रहता है । इसका पूरा चणन हम पूर्व विदुद्ध केवल छानम ज्ञान त्वन्यतमों मावः ग्ठोको्म कर चुके हैं । यही फिर सदारीर साकार होता हैं तब पुरुूप कहा ज्ञाता है यह भगवाच पुरुपोत्तमका पहला आविर्भाव हैं इसलिये इसे आय अवतार कहा गया डे । आद्योध्चतारः पुरपः परस्य मूलरूपसा पहला अवतार पुरुष है । जयूद्दे पोरुप॑ रूप भगवान सहदादिसिः । सम्भूते पोडशकलसादो.. टोकसिदस्तया व
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