बौद्ध दर्शन अन्य भारतीय दर्शन | Boddh Darshan Anya Bharatiya Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७२२ चोद्ध वेदान्त वाद को यथा चायमर्थ. स्व वेदान्तानाम्‌ ऐसा कहकर “वेदान्त' के रूप में उसकी स्थापना भी कर सकते थे जो उनसे विरुद्ध वेदान्त' वादियों की दृष्टि में “असच्छास्व' ही हो सकता था ! फिर नैयायिक, साख्य और मीमासको के अति विरोध तो सभी उत्तरकालीन वेदान्तवादियों का प्राय. समान ही है; अपने अपने वृप्टिकोणो को लेकर और सभी ने ब्रह्मसूत्रो के माघार पर उनका खण्डन भी किया है । हमारा तात्पय यहाँ केवल यह दिखाने का है कि जिस प्रकार न्याय दर्शनादि की वहुत सी मान्यत्ताओ का खण्डन करके भी एवं आपस में अनेक विभिन्नताएं रखते हुए भी, औपनिपद मन्तव्य के विपय में सभी उलभते हुए भी, अपनी प्रमाण-परम्पराओ7 में भी समान रूप अहण न करते हुए भी (केवछ श्रुति-प्रामाण्य को छोडकर और वह भी प्रकान्तर से अपने अपने ढंगो के अनु- सार) सभी शकर, रामानुज, वरलभ आदि के सम्प्रदाय 'वेदान्त' की सज्ञा ग्रहण करते हे, तो अन्तिम ज्ञान की ही खोज में लगे हुए घ्मकीति, नागार्जुन, अस्त, वसुवन्वु आदि माचार्यों के मतो को उनके विरोधियों के मतो के समान ही “वेदान्त' की सज्ञा क्यो न दी जाय ? वे तो स्वय “'अद्ययवादी' होने का दावा तक करते हे । झकर के पूज्याभिपूज्य गुरु तक तो उनकी परम्परा में हे । फिर जिस प्रकार दकरादि मनीपी औपनिपद मार्ग के साक्ष्य का दावा छेकर ज्ञान की अस्तिम गवें- पणा में प्रवृत्त होते है, उसी प्रकार बौद्ध आचार्य बुद्ध के द्वारा दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करके ही ज्ञान के अन्त की थाह पानें का प्रयत्न करतें है, अत्त. उन्हे केवल भारतीय देन की सर्वोत्तम चिचार-परम्परा अर्थातु “वेदान्त' दर्शन के साथ उनका सम्वन्च दिखाने के ठिए ओर कुछ कुछ उनके महनीय विचारों के प्रति कृतजता का प्रकादान करने के लिए ही, अन्य किसी प्रयोजन से नही, यदि हम “वोद्ध बेदान्त” (अर्थात्‌ वौद्ध दृप्टि से ज्ञान का चरम निष्प८र्प) के प्रस्यापन करने वाले कहे तो कदाचित्‌ यह उन्हें भी नहीं अखरेगा और साथ ही झशकरादि मनीपियों की महिमा भी कुछ नहीं घटेगी । निश्चय ही बौद्ध आचार्यों की परम्परा ज्ञान की गवेषणा में साहसपूरवेक उसके पर्यवसान पर्यन्त तक गई है, और निर्भय पूर्वक अभियान करते हुए उसका तथाकथित 'अभावावसान' म्तिपेव भी कया वास्तव में “अभावावसान' ही हुआ है अथवा “'ब्रह्मावसान' प्रति- घेघ करनेदाले मनीपी वेदान्ताचार्य भी उसी के पास पहुंचे हूं और इस प्रकार विपरीत मार्गों पर चलते हुए भी दोनो ने प्रकारोन्तर से 'नेति होवाच याज्ञवल्क्य.'” मथवा 'स एप नेति नेत्यात्मा' की ओपनिपद भूमि पर ही पैर जमाया है; यह हम जागें देखेंगे। परमार्थ के स्तख्य पर विचार करते हुए भ। दोनो किस




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