निर्गुण-धारा | Nirgun Dhara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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टॉष्टिकोश भाषाके द्वारा भावोको अभिव्यक्ति सनुष्यका प्रकृत धर्स है । यह अभिव्यक्ति चाहे “रसात्मक चाक्य' के रूपमे हो या. “रमणीयाथंप्रतिपादक शब्द' के रूपसें, इसके दो प्रकार है--सौखिक और लिखित । काव्यमें साधारणतः प्रथमका स्वरूप लोकगीतात्मक और अपरका विशुद्ध साहित्यिक हुआ करता है । पर यह एक उपलक्षण-मात्र हूं । क्योकि प्राचीन कालमें सौखिक रूपसें भी दशिष्ट-काव्यका प्रचुर निर्माण हुआ हूं, और आजकल तो अधिकांश लोकगीतोकी रचना लिखित रूपमे ही हो रही हे । सच तो यह हैं कि आजतक साहित्यमे; विद्वेघतः हिन्दी-साहित्यमे, लोकगीत और दिष्ट-काव्यके बीच कोई विभाजक रेखा बनी ही नही । यही नही, विभिन्न चोलियोके साहित्यको हिन्दी-साहित्यका अंग माननेके सम्बन्धसे भी अबतक कोई' तकंसम्मत सिद्धान्त प्रतिष्ठित नहीं किय। जा सका हू । सपूर्ण बर्तंमान हिन्दी-क्षे त्रमे समय-समथपर जनताके द्वारा एक स्वरसे स्वीकृत विभिन्न शिष्ट-काव्यमाषाओंका हिल्‍्दी-साहित्यके इतिहाससे स्थान पाता युक्तिसंगत हो सकता हू । संभवत: इसी सिद्धातके अनुसार बन्रजभाषा, भवधी, और खड़ी बोलीका साहित्य हिन्दीका साहित्य साना गया है । लेकिन तब विद्यापति हिन्दीके कवि किस प्रकार कहे जाते हूं, समकमे नहीं आता; क्योकि अबतकके शोध कार्यसे यह ज्ञात नही हो पाया है कि सेधिली भी कभी सपुर्ण हिन्दी-क्ष त्रकी सर्वसम्मत काव्य-साषा रही होगी । अब यदि उपभाषाओके साहिंत्यकों भी हिन्दी-साहित्यका अंग स्वीकार करते हे; तो भोजपुरी, सगही; वुन्देलखंडी और छत्तीसगढीकी एकातिक अवहेलनाका, और सवय मंथिलीके ही अन्य कवियोकी पुर्ण उपेक्षाका क्या




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