अध्यात्म रत्नत्रय | Adhyatma Ratnatraya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.53 MB
कुल पष्ठ :
222
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उमयसार गाथा ३२० ] [ ६
पुज्य कानजी स्वामी के प्रवचन
भगवान श्रात्मा तो ज्ञानस्वभावी हें । राग को करना या
राग को भोगना श्रात्मा का स्वभाव नहीं हे । श्रात्मा इन
दरीरादि पर पदार्थों का तो करता हें ही नही, पर रागादि का
करना श्रौर रागादि का वेदना भी श्रात्मा के ज्ञानस्वभाव में
नहीं हे। इस गाथा मे यह बात दृष्टान्त से समभाते है ।
जिस प्रकार झ्ाँख दुश्यमान अझग्निरूप, वस्तु को देखती
हैं, परन्तु संधूक्षण करने वाले. (भ्रग्ति को जलाने वाले ) पुरुष
के समान श्रग्नि को करती नही हें । पुरुष श्रर्नि ्रादि दुश्यमान
पदार्थों को करता हें, परन्तु झाँख दृश्यमान , पदार्थों को मात्र
देखती हे, करती नही हे । तथा तपें हुए लोहे के गर्म गोले की
तरह श्रॉँख श्रग्नि को. भ्रनुभवरूप से. नही. वेदती । लोहे
का गर्म गोला श्रग्ति को ऊष्णता को वेदता हें परन्तु प्रॉख|
ऊष्णता का वेदन. नहीं करती । उसीप्रकार ज्ञायक स्वभावी'
आत्मा पुण्य-पापरूप भावों को करता श्रौर वेदता नही हें ।।
(लोग दया पालते है, ब्रतादि करते हैं, दान करते है, परन्तु
भाई ! यह सब तो राग हे । इस राग का करना श्रौर वेदना
आत्मा के ज्ञानस्वभाव में नही हे । श्रपना ऐसा स्वभाव जब तक
दुष्टि में नही श्राता, तब तक यह जीव अज्ञानी रहता हें 1)
आँख की तरह शुद्ध ज्ञान (श्रभेदनय से शुद्धज्ञानपरिणत
जीव) भी स्व॒थ शुद्ध-उपादानरूप से राग को करता नही श्रौर
वेदता भी नहीं । देखो, यहाँ शुद्ध ज्ञानरूप परिणमित जीव.
की बात है । रुद्धज्ञान अर्थात् गुण भर शुद्धज्ञान परिणत जीव! डर
प्र्थात् द्रव्य (से एक शुद्ध ज्ञानस्वभावी श्रात्मा हूँ - ऐसा जिसे
अन्तर मे शुद्ध्ावमय परिणणमन हुभ्रा, वह जीव शुद्ध-उपादान
रूप से दया, दान, व्रत श्रादि रागभाव को करता नही भर
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