याज्ञवल्कय स्मृति | Yajnavalkya Smṛti

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Yajnavalkya Smṛti by याज्ञवल्क्य - Yajnavalkya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब्ह्मचारिमकररणम्‌ । ७ हितिं चास्याचरोन्नित्यमनोवाकायकमे नि ॥ ९७ ही कृतज्ञादोहिमे घाविशचिकल्पानसूयकाः । झध्याप्याधमतः साधु शक्तापज्ञानवित्तदाः ॥ २८ गुरु बुलावे तो पढ़ने को जावे जो मिले सो गुरु को निवेदन करे और मन वासी छौर कर्म से उसका दितसाघन करे ॥ ९७ जो उपकार मानें; बेर न करें; बुद्धिमान हों; शुचि हों) छनिन्‍्दक होवें और जो धन या ज्ञान दें ऐसे दी सब धर्म से पहने योग्य हैं ॥ ९८ ॥। दरडाजिनोपवीतानि मेखलाजव धारयेद्‌ । न्राह्मणेषु चरेट्रेश्यमनिन्येष्वात्मदत्तये ॥ २६. ॥ ादिमप्यावसानेष्ु भवच्छव्दोपलक्षिता । चाहाणक्षत्रियविशां भेकष्यचंया यथाक्रमसु ॥ ३० ॥ घ्ह्मचारी पलाश शादि दर्ड; सगचमे धज्ञोपबीत और मेखला धारण करे 'और अपनी- दत्ति के लिये शुद्ध न्नाझ्मणों के घर सिक्षा मौँगे ॥ २४ ॥ ननाहझाण कत्रिय और वेश्य क्रम से शादि मध्य छौर अन्त में भवद शब्द कहकर भिक्षा मौंगे+ ॥ ह० ॥) कृंताग्निकार्यों भुज्ञींत चाग्यतो शुर्वतुज्ञया 1 . झापोशानक्रियापव सत्कत्यान्नमकुत्सयत्र ॥ ३२ ॥ .. न्ह्मचर्यें स्थितो नैकमनेमयादनापयदि । ... : न्ाद्यणः काममंभीयाच्छ्ाद्धे जतमपीडयस्‌ ॥ ३ ९.॥ झम्निहोत्र के बाद मौन दोकर आाचमन: करके भोनन करे * ज़ाहाण जझचारी “भवति ! सिदषां देहि” ऐसा बोलकर भीख मंगि। -




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