पतंजलि कालीन भारत | Patanjali Kalin Bharat
श्रेणी : समकालीन / Contemporary
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20.57 MB
कुल पष्ठ :
654
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about प्रभुदयालु अग्निहोत्री - Prabhu Dyalu Agnihotri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परिचय प्
पारिषद ग्रन्थ भी कहते हैँं। वास्तव मे इनका मूल बैंदिक सहिताओं का पद-पाठ था। वैदिक
काल मे सहिताओ का अर्थ स्पष्ट था, किन्तु घीरे-घीरे भाषा के स्वरूप मे कुछ परिवर्तन हो जाने
तथा ऐतिहासिक परम्परा के विच्छिन्न हो जाने के कारण सहिताएँ दुर्बोध हो चली और तव उनकें
अथवोध के छिए आचार्यो को उनका पदपाठ करना पडा। प्रातिदाख्यों की रचना के पुर्वे ही
वाकत्य ने ऋग्वेद, आजेय ने तैतिरीय और गार्ग्य ने सामवेद-सहिता का पदच्छेद कर दिया था।
इस पदच्छेद के परचात् ही प्रातिशाख्यो में बैदिक पदो पर विचार प्रारम्भ हुआ। इसीलिए, निरुक्त
में कहा है कि 'सब चरणों के पार्पद पद-प्रकृतिक है' ।' भिन्न-भिन्न वैदिक चरणों के अनुसन्वान में
अन्तर असिवायं था। कोई-कोई चरण इस प्रकार के अनुसन्वान करते थे, जो अन्य आाखाओ
द्वारा ग्राह्म न होने के कारण केवल उसी शाखा तक सीमित रह जाते थे। उदाहरणार्थ, सात्यमुद्रि
और राणायणीय सामशाखाओं के लोग छस्व एकार और ह्लस्व ओकार का भी प्रयोग करते थे।'
अन्यत्र वैदिक या लौकिक भाषा मे कही इस प्रकार का उच्चारण प्रचलित नही था। आगे चलकर
जब व्याकरण का शास्त्रीय विकास हुआ, तब उसमे समस्त चरणों के मान्य सिद्धान्तो का समावेण
कर लिया गया। इसीलिए, पतजक ने कहा है कि व्याकरण संवंदेदपारिपद छास्त्र है। उसमें
किसी एक परिषद् के मार्ग को आधार नहीं वनाया जा सकता ।*
प्रातिशाख्यो का रचना-काल एक नही हैं। लूडर्स के मत से तैत्तिरीय प्रातिशाख्य प्रथम है
और छाइचिश के मत से ऋक् प्रातिशाख्य । गोल्डस्टुकर वर्तमान सभी प्रातिशाख्यों को पाणिनि
के बाद का सानते है। फिर भी, अधिकाझ विद्वान पाणिनि-जैसी सर्वागपूर्ण विवेचन-पद्धति से
युक्त न होने एव ग्राह्मण-प्रन्थो में प्रयुक्त पारिभापिक णव्दो का ही प्रयोग करने के कारण ऋक्
प्रातिश्याख्य को प्राचीन स्वीकार करते है। इन प्रातिनाख्यो मे अप्टाव्यायी में प्राप्त जापिगकि,
काइयप आदि वैयाकरणो के नामों के अतिरिक्त इन्द्र, औदब्नणि, कात्यायन, कौत्स, पौप्करसादि,
माध्यत्दिनि, व्याडि, शाकल और दौलक के नाम अवर्य मिलते है, पर वे इसी कारण पाणिनि
की अपेक्षा अर्वाचीन नही कहे जा सकते। पाणिनि ने तो केवल उन्हीं वैयाकरणों का उल्लेख
किया है, जिनसे उनका मतभेद था। इन सब वैयाकरणों ने तन्त्र या प्रातिथाख्यो जैसे ग्रन्थ न
लिखकर प्रचलित भाषा के दाव्दो का विवेचन करनेवल्ठि ग्रत्थ लिखे थे। “सम्बुद्धी शाकल्यस्ये-
तावनारें' सुत्र का 'अनाें' पद इस वात का प्रमाण है। हाँ, कुछ प्राचीन प्रालिशासूषों में सुघार
और परिवद्ध॑न का क्रम पाणिनि के बाद तक चछता 'रहा। फिर भी, मोटे तौर पर मूल
प्रातिशाख्यो का रचना-काल ई० पू० १४०० से ई० पू० ७०० तक माना जा सकता द् । थी
१. पदप्रकृतीनति सबंचरणानां पार्वदानि--निस्क्त।
२. सोइछत्दोगानां सात्यमुध्रि राणायणीया 'हलस्वमेकारं ल्लस्वमोकारं च प्रयुबजते 1
न चैचान्यन्न छोके वेदे था ह्लस्व एकारो हस्व ओकारो वास्तीति ॥
-आ० २, सां० सु० देर, पू० पुर
हे. सर्ववेदयारिषद हीद॑ शास्त्रमु। की
* तन्न सैकः पन्या: दाक्य आास्यातुमू ॥
नपऐेरे१४ वा० द; पू० ३े०६।
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