पल्लविनी | Pallvini

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Pallvini by श्री सुमित्रानंदन पन्त - Sri Sumitranandan Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) १९२२ की सरस्वती में पावस ऋतु थी श्रादि पंक्तियों को उद्धृत करके लिखा था भूघर राट् के इस वर्णन में अक्षर-म्रक्षर झ्रपने स्थान में अ्निमेष खड़ा हुमा है--टस-से-मस नही हो सकता । पंतजी के विषय में उन्होंने लिखा था भाषा को बह भाव से बजाता है । संगीत को उंगलियों पर नचाता है । शब्दों को सूंघ-सुंघकर मनसाना मधु चुसता है । फिर भी जो पद्य में गद्य ही देखने के अ्रभ्यासी थे उनके लिए काव्य की चमत्का रपुर्ण श्रभिव्यंजना श्रौर लाक्षणिकता ने भाषा के झतिरिक्त एक-दूसरी कठिनता सामने रख दी । पढ़नेवालों ने सारा दोष भाषा के ही माथे मढ़ दिया । उन्होंने समभा सारा दोष संस्कृतमयी पदावली का है । पर अरब देखना यह है कि खड़ी बोली के लिए सूरत बया थी । ब्रज भाषा भौर झवधी की तरफ़ से वह मुह मोड़ चुकी थी । खड़ी बोली का जन्म उद्दू को देवनागरी श्रक्षरों मे लिखने के लिए नहीं हुभ्ा था। उद्दू से अगर हमारे देश की संस्कृति श्रभिव्यक्ति पा सकती तो हिंदी का पुनरुत्यान ही न होता। उदूं एक झोर हाली की जबान पर चढ़कर उस साप्रदायिकता की झ्रोर जा रही थी जिसकी चरम सीमा इक़बाल में पहुंचो प्र दूसरी शोर वह फ़ारसी-साहित्य की पुरानी परंपरा से भ्राए हुए मकतल मेखाना ाशिक माशुक का पहाड़ा पढ़ रही थी । जिस समय भारतेंदु यह लिख रहे थे कि भाषा मई उद जग की उस समय भी उसकी व्यापकता की श्रवहेलना करके जो हिंदी उठी उसका एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक कारण था। कहने का मतलब यह है कि खड़ी बोली उद्ूँ की झोर भी नहीं भुक सकती थी । ऐसी परिस्थिति में सिवा संस्कृत की ओर जाने के दूसरा चारा नहीं था । प्रयोग बंगला में हो चुका था । माइकेल मधुसूदन दत्त श्रौर रवि बाबू बंगला को संस्कृत से श्रनुप्राणित करके उसे शत-त भाव विचारों की वाहिनी सिद्ध कर चुके थे । दारुच्चंद्र ऐसे उपन्यासकार तक इस विचार के थे कि रवि बाबू ने संस्कृत की भरमार करके बंगला को चौपट कर दिया है। बगला के अध्ययन से भी जो खड़ी बोली के कवियों ने लिया वहसंस्कृत




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