संपूर्ण गाँधी वांड्मय भाग 64 | Sampurna Gandhi Vaadmay Vol - 64

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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*. पन्द्रह अन्त,करण मुझे सजा दे रहा हैहं।” (पुष्ठ ९१) । उनका यह दावा बिलकुल सही था. कि “ आत्मवत्सवंभूतेपु, ” यह मेरे लिए सात्र शास्त्रवचन नहीं है, मेरे जीवनकी बुनावठमे बुना गया सुत्र है” (पृष्ठ ६६) ।- गाघीजीका विद्वास था कि भूल होनेपर “ आत्मदुद्धिकी दिशाम लिया गया पहला कदम ” उस मूलकों सावंजनिक रूपसे स्वीकार कर लेना है। उनका कहना था--'“ ईइवर जिन दोषोकों देखता है उन्हें उसकी सष्टि क्यों न देखे? ” इतना ही नही, “” जिसके दोष प्रगट हो जाते हैं उसपर ईदवरकी कृपा समझनी चाहिए” (पृष्ठ १४९) । व्यावहारिक दृष्टिसे भी देखा जाये तो-व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक रूपसे अपनी भूल स्वीकार करनेका परिणाम यह होता है कि वह दुबारा भूल नहीं करता, ' इससे उसकी 'रक्षा होती है और “ इसीका नाम' ईरवर द्वारा की गई रक्षा है” तथा “ निबेंखके बल रामका मी यही अर्थ है” (पृष्ठ १४८) । घार्मिक विषयोके सम्बन्धमे गाधघीजीकी दृष्टि, बुद्धि और .विर्वासमे सामजस्य स्थापित. करनेकी थी । वे विष्वासका आधार केवल ऐसी चीजोमे लेते थे “” जिनमें तकंके लिए कोई स्थान नही है, जेसे कि ईदवरकी सत्ताम,” उनका कहना था, “कोई भी तके मुझे उस आस्थासे डिगा नहीं सकता। और उस बच्चीकी तरह जो सारे तर्कके प्रतिकूल ' बार-बार यही कहती रही” फिर भी हम सात है “में किसी बहुत अधिक बुद्धिमान 'व्यक्तिसे तकंसे परास्त होकार भी बार-बार यहीं कहना चाहूंगा कि “फिर भी ईदवर है,” (पृष्ठ ८६) । एक पत्र-लेखकको चेतावनी देते हुए गाघीजी कहते है कि “ जिस व्यक्तिकी ईरवरमें आस्था है उसे उन प्रेतात्माभोसे दुर रहना चाहिए जिनके साथ प्रेतात्मावादी सम्पकं स्थापित करनेकी कोशिदा करते है। क्योकि इन प्रेतात्माओकी स्थिति कुछ ऐसी है जसे कि अन्वे अन्वोको रास्ता दिखा रहे हो” और इनके साथ सम्पकं रखनेसे “हमारे और ईदवरके बीच रुकावट पैदा होती है।” (पृष्ठ ६) । गाघीजी कमंकी' दृष्टिसि_अपनेको शब्दश: और आध्यात्मिक रूपसे भगी मानते थे। उनका कहना था कि मुझे गलियों, कमोड और पाखानाघरोकी सफाई करनेकी बाहरी कला आती है और में अपने अन्तरगको भी साफ 'रखनेका प्रयत्न कर रहा हूँ, जिससे कि मं सत्यकी सही व्याख्या करनेमे समये बन सकूँ। अपने इस प्रयत्नमे गाघीजीका सबसे बड़ा अवलम्ब ' 'रामनाम' ही था । उनसे मिलने आये एक सज्जनसे उन्होने कहा, ” बचपनकी इस सीख ने मेरे अन्तमंनम एक विराट रूप ले लिया है। यह एक ऐसा सुयें है जिसने गहनतम अन्घकारकी मेरी घड़ियोको आकोकित किया है।” (पृष्ठ ८५) । एक अन्य व्यक्ति द्वारा यह पूछे जानेपर कि “आपको सबसे अधिक आशा और सन्तोष किस चीजंसे मिलता है।” उन्होने कहा “ ईरवरमें आस्था होनेके परिणामस्वरूप स्वय अपनेमे विष्वाससे ” मिलता है (पृष्ठ ३९) ।




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