इन्द्रिय संयम | indriya sanyam

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indriya sayam  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५ ) सेवन किया जाता है तो फिर दृढ़ भूमि में पहुंच जाता है कि वद्दी मन जो प्रथम कठिनता से भी चश में नहीं झा सकता था भव बिना प्रयत्न के सर्वथा चश में रदता है। आर चैराग्य यर है कि ऐहिक पारली किक विपयों में वितष्ण रहना । जद लौकिक और दिव्य थिपयों की प्राप्ति में भी खित्त को कोई प्रलोभन नहीं होता किन्तु उनके तात्काछिक और पारिणामिक दोषों को देखता हुआ उनके भोग में आसन नहीं होता तथ बैराग्य स्थिर होता है। इस प्रकार जय अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मच सीदनीय रज्ञनीय भौर कोपनीय ( मोह राग आग ट्ेष के जनक ) विपयोंकें साथ संयुक्त नदीं होता. तब सारे इन्द्रिय चित्त के स्त्ररूप के अनुकारी चन जाते हैं। चित्तकें जीता जाने पर सारे इन्ट्रिय जीते जातेहैं उन के जीतने फे लिये उपायान्तरर की अपेक्षा नहीं रदती । जिस प्रकार सुकर-राज ( मघुमक्खियोंकी रानी ) के उड़ने पर सब मक्खियें उड़ ज्ञाती पहैं और उस के बैठने पर सब बैठ जाती हैं इसी प्रकार चित्त के रुकने पर सब इन्द्रिय रुक जाते हैं । इसी का नाम प्रत्याद्दार २ है और इसी से इन्द्रियां की परमा वशता (अत्युत्तम अधीनता) होती है । इसलिये चित्त का राकना सब ख॑ उत्तर उपाय है । जब मनुष्य इस प्रकार इन्द्रियां को वश में कर लेता है तो सच सिद्धियें उसके दस्तगत दो जाती हैं ॥ हे. जितेन्द्रिय पुरुष के हृदय का गास्थोर्य्य शास्त्रकार्रा ने इस प्रकार चणन किया है-- शरुला सट्टा च इृ्टा च भुक्ता पाला च यो नरः नन हृष्याति र्ठायाति वा स विज्ञेयो जितेल्ट्रियमह-रा६




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