धर्म - मीमांसा | Dharm-mimansa
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.49 MB
कुल पष्ठ :
96
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)धर्मकी स्वरूप प्
सच अ७' लता करा आधा कत्ल थक
कलर ७४७ ७. सतयध्ाधाथजधअधाथरथअथका
तो इस्ठामियोंके वर्तमान कार्योको अनुचित समझते हुए भी इस्छामको
सहन कर सकेंगे ।
-. अब मैं वैदिक धर्मकी एक बात छेता हूँ । वैदिक धर्मकी वर्णाश्रम-
व्यवस्था जैनधर्मको मान्य नहीं है । परन्तु यह कहना ठीक नहीं कि
वैदिकधर्मका पक्ष असत्य है या जैनधर्मका पक्ष असत्य है । वैंदिक-
धर्मकी वर्णीश्रम-व्यवस्थाको समझनेके लिये हमें अपनी दृष्टि कई
हजार वर्ष पहले छे जाना चाहिये | हम देखते हैं कि उस समय
आरयोको कृपि और सेवाके ठिये आदमी नहीं मिलते--सभी आदमी
अयोग्य रहते हुए भी पंडिताई या सैनिक जीवन बिताना चाहते हैं ।
आवश्यक क्षेत्रगें आदमी नहीं मिठते; अनावश्यक क्षेत्रमें इतने
आदमी भर गये हैं कि बेकारी फैल गई है । हरएक आदमी महीनेमें
तीस बार अपनी आजीविका बदलता है । वह किसी भी काममें
अनुभव प्राप्त नहीं कर पाता । ऐसी हाठतमें वर्ण-व्यवस्थाकी
योजना होती है । इससे अनुचित प्रतियोगिता वन्द होकर आजीबिका-
के क्षेत्रका यथायोग्य विभाग होता है । परन्तु इसके बाद महात्मा
महावीरके जमानेमें हम देखते हैं. कि वर्णोने जातियोंका रूप
पकड़ छिया है. । पशुओंमें जैसे हाथी घोड़ा आदि जातियाँ होती हैं,
उसी प्रकार आजीविकाकी सुविधाके ठिये किया गया यह सुप्रबन्ध;
मनुष्य-जातिके टुकड़े टुकड़े कर रहा है ! पारस्परिक सहयोगके छिए
की गई वर्णव्यवस्था परस्परमें असहयोग और घृणाका प्रचार कर
रही है ! सिर्फ आजीविकाके: क्षेत्रके छिये किया गया यह विभाग
रोटी-बेटी-व्यंवहारें भी :आड़े आ रहा है ! इसके कारण दुरा-
चारी आाहझण सदाचारी शूदकी पूजा नहीं करना चाहता; किन्तु
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