धर्म - मीमांसा | Dharm-mimansa

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Dharm-mimansa by दरबारीलाल - Darbarilal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर्मकी स्वरूप प्‌ सच अ७' लता करा आधा कत्ल थक कलर ७४७ ७. सतयध्ाधाथजधअधाथरथअथका तो इस्ठामियोंके वर्तमान कार्योको अनुचित समझते हुए भी इस्छामको सहन कर सकेंगे । -. अब मैं वैदिक धर्मकी एक बात छेता हूँ । वैदिक धर्मकी वर्णाश्रम- व्यवस्था जैनधर्मको मान्य नहीं है । परन्तु यह कहना ठीक नहीं कि वैदिकधर्मका पक्ष असत्य है या जैनधर्मका पक्ष असत्य है । वैंदिक- धर्मकी वर्णीश्रम-व्यवस्थाको समझनेके लिये हमें अपनी दृष्टि कई हजार वर्ष पहले छे जाना चाहिये | हम देखते हैं कि उस समय आरयोको कृपि और सेवाके ठिये आदमी नहीं मिलते--सभी आदमी अयोग्य रहते हुए भी पंडिताई या सैनिक जीवन बिताना चाहते हैं । आवश्यक क्षेत्रगें आदमी नहीं मिठते; अनावश्यक क्षेत्रमें इतने आदमी भर गये हैं कि बेकारी फैल गई है । हरएक आदमी महीनेमें तीस बार अपनी आजीविका बदलता है । वह किसी भी काममें अनुभव प्राप्त नहीं कर पाता । ऐसी हाठतमें वर्ण-व्यवस्थाकी योजना होती है । इससे अनुचित प्रतियोगिता वन्द होकर आजीबिका- के क्षेत्रका यथायोग्य विभाग होता है । परन्तु इसके बाद महात्मा महावीरके जमानेमें हम देखते हैं. कि वर्णोने जातियोंका रूप पकड़ छिया है. । पशुओंमें जैसे हाथी घोड़ा आदि जातियाँ होती हैं, उसी प्रकार आजीविकाकी सुविधाके ठिये किया गया यह सुप्रबन्ध; मनुष्य-जातिके टुकड़े टुकड़े कर रहा है ! पारस्परिक सहयोगके छिए की गई वर्णव्यवस्था परस्परमें असहयोग और घृणाका प्रचार कर रही है ! सिर्फ आजीविकाके: क्षेत्रके छिये किया गया यह विभाग रोटी-बेटी-व्यंवहारें भी :आड़े आ रहा है ! इसके कारण दुरा- चारी आाहझण सदाचारी शूदकी पूजा नहीं करना चाहता; किन्तु




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