जनक और याज्ञवल्क्य | Janak Or Yagyavalkya

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Janak Or Yagyavalkya by कन्हैयालाल - Kanhaiyalalरामस्वरूप शर्मा - Ramswarup Sharma

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रामस्वरूप शर्मा - Ramswarup Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सोज्य ( खुराक ) दोनेसे यह उुदम शरीरके झधिछाता । झात्साका मी पोषत्त होता है| हृदयमेंसे वाखसे भी 1 ्तिसूदम सदहस्रों नसोंक्ा जाज निकल कर सब शरी | सें व्याप्त दोरद्दा दे इसमेंको दी वह जो द्तिपिर्ड चहुता है। सूचन शरीर सुदर्माथज्ञनशक्ति और प्राणशत्तिससे गठित होता है । इससे ही चिपयोंक्षे संस्कार रइले हैं अतः इस सदस-देदरूप उपाधिके सोगसे औात्माके | ज्ञाच और क्रियाका निवाइ होता दे झत्त। खजावस्था भी चात्माद्य सख्य सचरूपको प्रद्मशित नहीं करती । यद खचम शरीर दी आत्माफे सख्य रचरूपको ठके रहता है। ? उस समय यद्यपि स्थल वियय छौर इन्द्रियें विभास खेती हूँ परन्ठु अन्तःकरणसे उनके संस्कार जांगते रहते हैं। | उनसे दी जीच खश देखता है उनसे ही चासनाधंय सब | ी घविषयोंका प्रत्यन् करता हैं । ः इन दो झवस्थाधोंरे सिवाय जीचवकी खुपुद्धि नासकी | एक तींसरी अवस्था मी हें । इस झवस्थामे जीव किसी . १ प्र्ारके विपयका दर्शन नहीं करता है यह जीवकी भाढ़ भिद्रायस्था है । इससे जीवको घाइर या सीतरका छुद चोघ नहीं दोता हैं छौर न किसी मकारकी वासना ही रदती है । इस घवस्थाम न्ताकरणकी खघ चूत्तियें | छार्पीत्‌ रूप छादिका ज्ञ.च और उनकी स्खतियें विलीमु एोकर पाणशक्त्तिमं छुपी रहती हैं परतु यदद भी आत्मा का सख्य निरुपाधिक रखरूप नहीं है । इस समय ९ सब विज्ञान सब चासनायें प्राणशक्तिंसें घीजरूपसे छुपी रहती हैं । यह पाणशक्ति नामकं वीजरूप उपाधि रददती है इसलिये दी जीव निद्रामज्ञ होनेपर सकल | चायनाओं घौर कामनाओोंत्षो लेकर फिर उठ चेठता शा सजण दर्द कजटााक रद रस साय हे साक्रजारन्ा जच्सन नायक के उतन जे कद अाउा के पतन के रसन्ससननाथ




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