माधुरी | Madhuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मं क श्नाध, रे०छ तु० से० ] अद्देतवाद (गतांक से श्रागे ) जुर्वेद के ११वं अध्याय के ६६वें संत्र में “ब्रासुरो माया” शब्द आया है । इससे शाथद लोग समसे कि राध्षसों के छुलावे का वर्यान है । इस आम को दूर करने के लिये हम मंत्र का अथ देते हैं-- दृछिडस्व देवि परूथिवि स्वस्तय श्रातुरी माया स्वघया कृतासि ६ जष्टे देवेग्य इदमस्तु हृव्यमरिष्टा खपनदिहि यज्ने श्रस्मिन्‌ | (यजु० ११ । ६९) इस पर उव्वट का भाष्य है-- यत आासुरी माया । श्रतुः प्राण: | रेफ़ उपजनः । झाण- सम्बन्धिनी साया प्रज्ञा । अर्थात्‌ प्राख-संबंधो प्रजा या ज्ञान का नाम श्वासुरी साया है । महोघर लिखते हैं-- कस्मात्वमिद्मुच्यसे स्वधयानेन निमित्तेन लमातुरी माया श्राण- सम्बन्धिनी प्रज्ञा कतासि | सूनों याणानामियमासुरी | यद्वा असुरसम्बन्धिनी माया अविन्त्यरचनारूप॑ चित्र वस्तु भूखा यद्दत्‌ प्रतिभाति तदवत्‌ व्वमपि स्तनरचनायूक्ता निप्पन्नासर्विर्थ: | इससे विदित होता हैं कि यदयपि महीधघर भी उध्वट के सदश साया का अथे “प्रज्ञा करते हैं, तथापि उनके भाष्य में 'राक्षसी माया” की भो कुछ छुटा है ; परन्तु इसके लिये उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया । माया का भ्रज्ञा अर्थ करने में, तो निरुक़ का भी प्रमाण है, और उष्वट का भी जो महीघर से पुराने भाष्यकार हैं । * “झासुरी माया” शब्द १३वें अध्याय के ४४वें मंत्र में सी आया हे-- वख्तरीं ्वप्टुवरुणस्य नामिमविं जश्ञाना८ रजसः परस्तात्‌ ! मदी 2 साहसीमतुरस्य मायामगने माहि£ सी: परमें व्योमन्‌ । ( यजुवेद १३ | उ४ ) यहाँ *माया! के दो विशेषण हैं । एक “मही” और दूसरी प्साहस्री”, और “अग्निदेव” से प्राथना की गई है कि आप इस “महा”, 'साहखों', 'असुरस्य' और साया” का नाश न कोजिए । स्पष्ट है कि यदि इसमें 'राक्ष्सी माया” का खोकबाद के समान कुछ भी लवलेश होता, तो उसकी अअद्वेतव द. हर रक्षा की ग्राथना कभो न की जातो । इस पर उच्वट खिखते हैं-- महीं मदतीं साइसीं सहसोपकारकक्तमामू । श्रप्लुरस्य असुवतः प्रायावतः प्रज्ञानवतो वा बसणस्य मायां प्रज्ञा हैं झग्ने, मा हिंसी: । ः अर्थात्‌ 'महीं' नास है बढ़ी” का । 'साहसी' का अर्थ है “अनेक उपकार करनेवाल्ली” । ( यहाँ याद रखना चाहिए कि 'माया? को छुन्न था कपटमयी माथा या विद्या नहीं साना गया ; परत उसको 'सहखरों उपकार करनेवाली' बताया गया है । न इसको गौड्पादाचाये को वेदांत-संबंधी 'माया' के अथ में लिया गया है । क्योंकि वेदांती 'माया” से उपकार नहीं, किंतु अपकार हो होता है )। “असुर' नाम है प्राणवाले या ज्ञानो का, और माया का अर्थ है 'प्रज्ञाः या बुद्धि । महीधघर ने भी इसी को दुद्दराया है, जैसे-- असुरस्य मायामपवः प्राण विद्यन्ते यस्य सोध्सुरः मखथे र: | प्राणवतों मायां प्रज्ञां मीयते जायतेडनया माया प्रज्ञा ब्राणिनां प्रज्ञाप्रदामित्य्थ: । यहाँ महीधघर ने, यह भी दिखा दिया कि “प्रज्ञा” को पमाया' क्यों कहते हैं । श्रर्धात्‌ जिसके द्वारा *मीयते”, “ज्ञायते” या ज्ञान प्राप्त होता है, उसका नाम है 'माया”। यहाँ “माया” को “प्रज्ञाप्रदा' कहा गया है । प्रज्ञाप्रदा या बुद्धि देनेवाली वस्तु कदापि झविधा नहीं हो सकती । तेईसवे अध्याय के शरवें मंत्र आया है-- पश्चसवन्तः पुरुष आविवेश तान्यन्तः पुरुष श्रॉर्पितानिं । संत- स्वात्र अतिमन्वानों आस्थि ने मायया भव श्युत्तरो मत्‌ ॥ ( यजुबेंद ० २३ मं० ५२ ) इसकी व्यास्या करते हुए महीघर ने-- किश्न मायया बुख्या मत्‌ मत्त: उत्तरोझधिकरतं न भवसि | मत्तो बुद्धिमान्नासीत्यथ: । प्माया का अथ 'बुद्धि' किया है । ३० वें अध्याय के ७ व मंत्र में-- *पमायाये कर्पारछ”” से भो लुहार की विशेष विद्या का ग्रहण किया गया है । स्वासी दयानंद 'मायाये! का अथ करतें हैं “'प्रशावृदये!” अर्थात्‌ झान बढ़ाने के लिये । च में *मायया” शब्द




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