माधुरी | Madhuri
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
54.81 MB
कुल पष्ठ :
909
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मं क
श्नाध, रे०छ तु० से० ]
अद्देतवाद
(गतांक से श्रागे )
जुर्वेद के ११वं अध्याय के ६६वें संत्र में
“ब्रासुरो माया” शब्द आया है । इससे
शाथद लोग समसे कि राध्षसों के
छुलावे का वर्यान है । इस आम को दूर
करने के लिये हम मंत्र का अथ
देते हैं--
दृछिडस्व देवि परूथिवि स्वस्तय श्रातुरी माया स्वघया कृतासि ६
जष्टे देवेग्य इदमस्तु हृव्यमरिष्टा खपनदिहि यज्ने श्रस्मिन् |
(यजु० ११ । ६९)
इस पर उव्वट का भाष्य है--
यत आासुरी माया । श्रतुः प्राण: | रेफ़ उपजनः । झाण-
सम्बन्धिनी साया प्रज्ञा ।
अर्थात् प्राख-संबंधो प्रजा या ज्ञान का नाम श्वासुरी
साया है ।
महोघर लिखते हैं--
कस्मात्वमिद्मुच्यसे स्वधयानेन निमित्तेन लमातुरी माया श्राण-
सम्बन्धिनी प्रज्ञा कतासि | सूनों याणानामियमासुरी | यद्वा
असुरसम्बन्धिनी माया अविन्त्यरचनारूप॑ चित्र वस्तु भूखा
यद्दत् प्रतिभाति तदवत् व्वमपि स्तनरचनायूक्ता निप्पन्नासर्विर्थ: |
इससे विदित होता हैं कि यदयपि महीधघर भी उध्वट
के सदश साया का अथे “प्रज्ञा करते हैं, तथापि उनके
भाष्य में 'राक्षसी माया” की भो कुछ छुटा है ; परन्तु
इसके लिये उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया । माया का
भ्रज्ञा अर्थ करने में, तो निरुक़ का भी प्रमाण है, और
उष्वट का भी जो महीघर से पुराने भाष्यकार हैं । *
“झासुरी माया” शब्द १३वें अध्याय के ४४वें मंत्र में
सी आया हे--
वख्तरीं ्वप्टुवरुणस्य नामिमविं जश्ञाना८ रजसः परस्तात् !
मदी 2 साहसीमतुरस्य मायामगने माहि£ सी: परमें व्योमन् ।
( यजुवेद १३ | उ४ )
यहाँ *माया! के दो विशेषण हैं । एक “मही” और दूसरी
प्साहस्री”, और “अग्निदेव” से प्राथना की गई है कि आप
इस “महा”, 'साहखों', 'असुरस्य' और साया” का नाश न
कोजिए । स्पष्ट है कि यदि इसमें 'राक्ष्सी माया” का
खोकबाद के समान कुछ भी लवलेश होता, तो उसकी
अअद्वेतव द. हर
रक्षा की ग्राथना कभो न की जातो । इस पर उच्वट
खिखते हैं--
महीं मदतीं साइसीं सहसोपकारकक्तमामू । श्रप्लुरस्य
असुवतः प्रायावतः प्रज्ञानवतो वा बसणस्य मायां प्रज्ञा
हैं झग्ने, मा हिंसी: । ः
अर्थात् 'महीं' नास है बढ़ी” का । 'साहसी' का
अर्थ है “अनेक उपकार करनेवाल्ली” । ( यहाँ याद रखना
चाहिए कि 'माया? को छुन्न था कपटमयी माथा या
विद्या नहीं साना गया ; परत उसको 'सहखरों उपकार
करनेवाली' बताया गया है । न इसको गौड्पादाचाये
को वेदांत-संबंधी 'माया' के अथ में लिया गया है ।
क्योंकि वेदांती 'माया” से उपकार नहीं, किंतु अपकार हो
होता है )। “असुर' नाम है प्राणवाले या ज्ञानो का, और
माया का अर्थ है 'प्रज्ञाः या बुद्धि ।
महीधघर ने भी इसी को दुद्दराया है, जैसे--
असुरस्य मायामपवः प्राण विद्यन्ते यस्य सोध्सुरः मखथे र: |
प्राणवतों मायां प्रज्ञां मीयते जायतेडनया माया प्रज्ञा
ब्राणिनां प्रज्ञाप्रदामित्य्थ: ।
यहाँ महीधघर ने, यह भी दिखा दिया कि “प्रज्ञा” को
पमाया' क्यों कहते हैं । श्रर्धात् जिसके द्वारा *मीयते”,
“ज्ञायते” या ज्ञान प्राप्त होता है, उसका नाम है 'माया”।
यहाँ “माया” को “प्रज्ञाप्रदा' कहा गया है । प्रज्ञाप्रदा
या बुद्धि देनेवाली वस्तु कदापि झविधा नहीं हो
सकती ।
तेईसवे अध्याय के शरवें मंत्र
आया है--
पश्चसवन्तः पुरुष आविवेश तान्यन्तः पुरुष श्रॉर्पितानिं । संत-
स्वात्र अतिमन्वानों आस्थि ने मायया भव श्युत्तरो मत् ॥
( यजुबेंद ० २३ मं० ५२ )
इसकी व्यास्या करते हुए महीघर ने--
किश्न मायया बुख्या मत् मत्त: उत्तरोझधिकरतं न भवसि |
मत्तो बुद्धिमान्नासीत्यथ: ।
प्माया का अथ 'बुद्धि' किया है ।
३० वें अध्याय के ७ व मंत्र में--
*पमायाये कर्पारछ””
से भो लुहार की विशेष विद्या का ग्रहण किया गया है ।
स्वासी दयानंद 'मायाये! का अथ करतें हैं “'प्रशावृदये!”
अर्थात् झान बढ़ाने के लिये ।
च
में *मायया” शब्द
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