सौन्दर्य तत्त्व | Saundarya Tattva
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.29 MB
कुल पष्ठ :
283
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिझा १२
जा सकता है; तयापि अश्रम नहीं । हमें सौन्दर्य का बोध वीक्षाव्यापार द्वारा ही
होता है, अतंएुव उसे केवल फल्पनामूलक अन्तर्थादार कहना उचित होगा। फंसी
झब्दादि को सुनकर हमारी यभ्तवूं त्ति उसी के अनुरूप जागृत हो जाती हूँ भीर
उस अर्थ के अनुरूप व्यापारवती होने लगती हूँ। इस प्रकार से व्यापारयती कल्पना
में भातित वस्तु हो ययार्यतः सुन्दर कहलाती है। अभिप्राय यह दि दृष्द रुप फरपता
का संग पाकर भिन्न रुप और मूरति धारण कर लेता है। उसकी उस दुष्ड रुप
से नितान्त पथ सता स्थापित हो जाती हूं और द्रष्ट! को सीन्दर्पदोय के सम्रय
बाहपाम्यन्तर का ब्तवोध नहीं होता। आन्तरिक होनें के कारण ही सीर्दर्म की
कोई निश्चित रूपरेखा दे सकना या सीन्दर्वबोव के लिए कोई नियम निरियत
कर संवाना सम्भव नहीं है। चह तो च्यव्तिनग्पवित के अपने संस्कारों और अरनी-
अपनी वीक्षावृत्ति पर निर्भर है। जो वश्तु, इसीलिए, एक व्यर्कित को सुन्दर लगती
है, बही दुसरे को कमी-फभी कुत्सित भो लगा करतो है। स्वयं भिन्न स्ितियों
में एक हो व्यक्ति चद्मा को दोतल या दाहुक मान लिया करता है।
क्रोचे वीक्षावृत्ति को अन्वोकानिरपेक्ष सानते हू। उनका कयन हूं कि यद्यपि
किसी चित्र को देखते समय अन्दीक्षालस्प व्यापारों को सत्ता वनों रहती हैं; तथापि
चित्र का वास्तविक आनन्द हम उसकी समप्रता या उस्तरे अवण्ड भाव में हो ले
पाते हैं, अस्वीक्षालब्ध अंग-प्रत्पंग के भिश्नता-ज्ञान में हमें आनन्द नहीं आता।
यही भलण्डमाव चीक्षावृत्ति की स्वतस्त्रता का चोतक हूं, यही इंडुइशन हूं । वस्तुतः
इस प्रकार को आन्तर-दर्शन ही ययायें दर्शन है भर यह वस्तु-निरपेक्ष होता है।
फ्रोचे के अनुसार वोक्षादृत्ति के द्वारा गूहदीत संस्कृत, परिष्कृत रुपों में ही सौन्दर्य
होता है और वीक्षावृत्ति स्वतः भावोन्मुक्ति का द्वार खोज लेती हैं। इंडुइशन
या दर्शन के साथ ही एक्सप्रेशन या अभिव्यक्ति उपस्थित हो जाती है। इस रूप
में बोक्षावृत्ति का प्रयोग वस्तूपघायक सो हूं और अभिव्यदित अयदा प्रकाशो पदापक
'भो। प्रकाशोपघायक वृत्ति में आकर्षण बना रहता हूँ, जिसके परिणामस्वरूप आनन्द
की उपस्थिति होती है । इस प्रकार ज्ञातांश, हलादांश तथा प्रकाशांदा तीनों युगपत्
भाव से प्रतीत हुआ करते हैं। इसीलिए इस प्रतीति को अतंलधपक्रम फहा गया
हैं । वस्तु को इस प्रकार को स्थिति के कारण ही फ्रोचे केवल रूपाकार या फामें
को सीन्दयें का प्राण मानति हूं। अन्तवुत्ति के महत्व को सहज ही फिंसी फोटो
और चित्र की तुलना के द्वारर जाना जा सकता है । फोटो में वीक्षावृत्ति का संपोग
न होने के कारण ही उसमें चित्र का-सा सौन्दर्याकर्पण नहीं होता। इसी आधार
पर क्रोचे, कांट तया हेगेल कला को अध्यात्म-वोघ मानते है।
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