बीजक | Bijak

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Bijak by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१3 दोता हुआ मी अपार दुष्स सागर में दया रदता है । इसके (: का एक मात्र कारण अज्ञान जन्य अम है । सा कि सलुरु ने कहा है कि-- ध्पन पी श्यापुद्दी विसरो । जैसे झुनद्दा फाच-मंदिल में भरमतें भूंसि सरो जीं के्डरि वपु निरखि कूप-जल, प्रतिमा देखि परे ॥ चैसेद्दी गन फरिक-सिला पर, दसनन्दि ध्यासिथरा। मरकट मूठि स्वाद नि विटरे, घूर घर रठत फिर ॥ कहें हैं कविर ललनी के खुगना, तोदि कौने पकरेए । जिस प्रकार प्रकाश के अतिरिक्त श्वन्थकार की निदसि किसी प्रकार नहीं दो सकती है॥ इसी प्रकार भपने शुद्धानन्द स्वरूप के सादयद् शान के बिना 'अन्यान्य उपायों से झज्ञान की भी निदृत्ति नहीं दो सकती है। जैसा कि शुति का बयन है कि “तमेव दिदित्वा5तिश्रस्युमेति नान्य: पन्‍्था विद्यते इयनाय” [ अपने शुद्ध स्वरूप को लानने से ही जीदवात्मा सब्यु रदित हो सकता है; क्यों कि मुक्ति का मार्ग दूसरा नहीं है] इसी वात को सद्‌गुरु ने भी कहा है कि बाप औआघु चेते नहीं (थौ.) कड़ी सो रसवा दोय । कहें हिं कबीर जो सपने जाये, थस्ति निरास्ति न होय' तथा “सुख बिसराय सुकुति कहदोँ पावै । परिद्रि साँच मूठ सिज धावे ॥ इस्यादि । अपरोत्त जम की नियृत्ति के लिए अपरोछ स्वरूप ज्ञान का होना आवश्यक है, तया नियपाधिक कैचर्य पद की आपि के लिए निरुपाधिक कैव्य ज्ञान ही उपयोगी हो सकता है, सेापाधिक ज्ञान नहीं, क्योंकि सोपाधिक ज्ञान 'अयपार्थ है । शुद्ध चेतन निरुपाधिक है । शत; निरु- बी० भ्रष्- -»




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