श्रीमद भगवत गीता | Shri Mad Bhagwat Gita
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16.48 MB
कुल पष्ठ :
497
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भगवद्मीता नवलभाष्य । १५ गनठनाप ततु कतव्यमिवाधिकृतत्वाविश्रेपादिन्याघंकय प्ाक्तमनवदात प्रागात नई ज्ञानकमगुावराधात ज्ञ. ननिश्ठेन कम कत शकयत तथाचानात्मन्ननन 1चत्तशदुध्या।द परम्परया न्नानाथ कमानप्रुयामात प्रातपापद्तामत्यय ताइ यचाीादित्यादि 1कमये नाइ तन्र ज्ञानानद्रा प्र तप द्यते कमोनप्रात पवमवाक्तत्वानानर वक्तच्यत्याथक्य बत्तम चान्तरमनवर्दति प्रातपार्यात प्रासांगकमन्ञन्य कम कतंब्यताक्तप्रसंगागतमात यावत व ुकारणमाश्वरप्रसादा दवताप्रातरचंत्या ददोपसं की तनें तंरदृत्वा न प्रदायत्याद ॥7६ # स्वांमकृतटीका । यन्माइवं परमेस्वरंगाव भतानां पुमपायामदुय कमाादचक्र प्रवाततत तत्मात तदक थतां बृधिव लावितामित्याइ सवामात परमंख्वरवाक्यमतादूदारुय्राह्मण पुरपाणा गमाण प्रदततम्तत कमानप्पात्तम्तेत पजन्यन्तता न्न ततीं भ्रतानि भतानां पनरतथे य कम प्रयू लारत्यव प्रवातत चक्कर या नानवतयात नान तप्रात अब पापढपमाययर्य स यत इन्ट्रियादपयप्ववारमात नत्वाश्वराराघनाथ कमाण पता माघ व्यय स नाच त ॥ १९६ ॥ नवलभाप्य | इसप्रकार इदवरने देवयज्ञपूरवेक प्रइचाकिया लो जगत्रूप चक्र तिसको हुसलोकमें कम अधिकारको प्राप्त जो पुरुप नहीं अनुव्सन करता दे अ- थोतू नहीं सेवनकरता हे सो केवल अधायुहदे अर्थात् अब जो पाप सोई हे आयु नाम जीवन जिसका ऐसाहै नाम पाप जीवन है ओर इंद्रियोंके वि- प्रयमेंही हे आरामक्रीड़ा जिसकी ऐसाहआ वहपुरुप हे असुन छपाही जीव- ताहे भवात् आर्मस्वरूपकों नहीं जाननेवाला पुरुप जो भाठस्यादि कार- शसे देदोक्त कर्माका त्पागकरके केवठ विपयोंमें रमे उसका निप्फलजाय- नहें तिससे कमेमार्गमें भाधिकारकों प्राप्त लो अज्ञपरुप तिसको स्वविहित कम अवद्यकर्चच्य हे अपात् जो अपनेव्णी आश्रम धर्म दास््र विहितटे साअवरयकरनेके योग्य यट इसप्रकरणका अपडे अपइसप्रकार आत्मज्ञा- ननिष्ठाकफी योग्यताके पर्वकालमें उसयोग्यता की ग्रामिद्धे अर्थ अधिकारी जो अनात्मन्ञ पुरूर अर्थात् आरमस्वरप का नहीं लाननेवाला पररुप उस को फर्मेपोग का अनप्टान रारना चाय यह सिदान्त तिसको ( नरूमे- शामनारम्भात् ) इस श्लोरसे लेरर और ( डारीरयादापि पतन प्रसिट्प्येद कमणः | इस इलोरुके समाति पयन्त यन्परुरसे प्रसियाइन करके दिंर ( पन्ापारिरुमणघोन्पग ) इस इटोससे लेरूर ( मोपरापसवीयति ) रलासरू सम्ततरु सा घन्पातेस रूरसे सथिसारयन्य तो अनारमयिर्र पतिससों घ्ेग दास सम तपानमें चहन रारणरूई ध्तर दिरनिसरे नहीं फरनेमें दापनी रूह ॥ 5६ ॥
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