माँ सारदा | Maa Sarada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मी शारदा छ जपरामदारी आदि स्थानों में भीयण अर पढे पर्मप्राण रॉसिचस्द्र को सहानता का विशेष परिचय उस समय की घटनाओं से मिलता है, और सारदा देवी विगलित बरया के रूप में हमारी अपरी के सामने आती है उन्दोंने मकतो से कहा था, ” एक समय (बेंगला सन्‌ १२३१ में) उपर मयहर अवल पद । सितने ही भुसे लोग हमारे घर पर आते थे । पहले वर्ष वा मुख घान हमारे यहाँ बाकी था । पिताजी 'उस धान में भाव निवालयर उसमें उइद की दाल मिलाशर यदी-यडी हष्टियों में सिचही बनवाकर रखते थे । थे बहते, ' घर थे लोग यही भोजन बरेंगे तथा और जो-जो आयगा, उसे भी यही दिया जाप 1 केवल मेरी सारदा के लिए अच्छे थावल की रगोई बनेगी ।' कमी-कमी तो ऐगी स्थिति हो जाती थी कि लोगों की सर्या अधिक हो जे के कारण उतनी सिचही से पूरा नही पहना था । फिर से उसी समय हेंण्दी चद्टानी पढ़ती थी । खिचड़ी बन जाने पर, उसे ठण्ड़ा करने के लिए में दोनो हाथी से पंवा किया करती । अहा, भूख से व्यिल होकर शव कोई भीजन की प्रतीश! में दठे रहते थे ! “एक दिन मीच जाति की एक लड़की आयी। तेल न पहने से उसके बेयों में लें पद गयी थी । पागल की-सी आँगें थी । थह दीड़ती हुई आधी बौर नाद में गयी के लिए जो भूसी भीग रही थी, उगी को खाना शुरू कर दिया । छोगों ने जितना कहा, ' भीतर अर सिवड्ी ले, पर उतना धैयें बड़ी ? बुछ भूगी सा शव पर तव कहीं वह आवाज उसके कानों में पहुँची । ऐसा भीषण अकाल पड़ा था! उस साल इतना दुख भोगने के वाद तव लोगों ने धान सचय करके रखना आरम्म किया । ” सारदा देवी की बालिझा-मूरति के अन्तराल में जो असीम दया, कग्णा और पर-दु'ख-कातरता अधखिली अवस्था में दिखायी देती है, उसी ने आगे चलकर देब्री-मातृत्व के रूप में पुणे प्रस्फुटित हो अपने




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