मध्ययुगीन सगुण और निर्गुण हिंदी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन | Madhyayugin Sagun & Nirgun Hindi Sahitya Ka Tulnaatmak Addhyayan

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Madhyayugin Sagun & Nirgun Hindi Sahitya Ka Tulnaatmak Addhyayan by डॉ आशा गुप्ता - Dr. Aasha Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग सगुण और निगूण हिन्दी साहित्य प्रणवोपास्तयः प्रायो निर्गुण एव वेदगा:।. क्वचित्‌ सगुणताप्युक्ता . प्रणवोपासनस्य हि।” ः दलोक १४७१ वैदिक काल के आर्य इन्द्रादि देवताओं एवं प्रजापति हिरण्यगभ की उपासना करते थे, जो कि स्पष्ट ही सगृण उपासना के अन्तर्गत आती हैं। हिरण्यगभ देव ही कालक्रम से न्रह्मा, विष्णु और दिव--इन तीन नामों से व्रिरूप में विभकत हुए हैं। ब्रह्माण्ड के अधिपति' प्रजापति हिरण्यग्म का एक अन्य नाम “अक्षर आत्मा है। वे ऐश्वर्य से सम्पन्न अतएव सर्वज्ञ, सर्वेदक्तिमान्‌ और सर्वव्यापी हैं। 'हिरण्यगभ: समवत्त॑ता ग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्‌ ।' इत्यादि ऋचा में उन्हीं की स्तुति हुई है।' अध्ययन से प्रतीत होता है कि वैदिक काल में ही ब्रह्जज्ञान निगुण व सगुण दोनों रूपों में था। डा० हज़ारी प्रसाद ट्रिवेदी का यह कथन नितान्त उपयुक्त है कि श्रुतियों के परिशीलन से यह स्पष्ट ही जान पड़ता है कि ऋषियों के मस्तिष्क में ब्रह्म के दो स्वरूप थे--- १: एक गुण, विशेषण, आकार और उपाधि-से परे निगुण, निर्विक्षेष निराकार और . निरुपाधि। २. हसरा इन सब बातों से युक्त अर्थात्‌ सगुण, सविश्ेष, साकार और सोपाधि। निष्कर्ष यह कि आत्मज्ञान के साथ ही निगुण और सगुण दोनों विशेषणों का उद्भव हुआ। फिर भी इस विषय में बराबर मतभेद रहा है कि वेदों में ब्रह्मा का निरूपण किस प्रणाली से किया गया । कुछ विद्वान्‌ मानते हैं कि वेद बहुदेववाद को लेकर चले, कुछ अध्येता वेदों में सगुण उपासना का अस्तित्व सिद्ध करते हैं, कुछ एकेश्वरवाद का सबसे बड़ा प्रमाण वेदों को ठहराते हैं। उपयुक्त विवेचन से पहला तथ्य जो सामने आता है वह यह है कि वैदिक ऋचाओं के अन्तर्गत मनुष्य से ऊँची किसी महती सत्ता पर निद्चित रूप से विश्वास रहा है। इसके अतिरिक्त वैदिक सुक्त यह-घोषित करते हैं कि मनुष्य का उस विराटसत्ता से कुछ सम्बन्ध है, और ऐसा सम्बन्ध है जहाँ वह अपनी आवश्यकता प्रकट कर सकता है, उस उच्च सत्ता के प्रति अपना आइचये प्रकट कर सकता है, अपने अभावों की पूर्ति के लिए याचना कर सकता है, अपने ऐश्वंय॑ की निस्संकोच कामना कर सकता है। वैदिक स्तुतियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि उस समय के ऋषि को, द्रष्टा को यह विश्वास था कि ईरवर का अस्तित्व है, मनृष्य की परिस्थिति का अस्तित्व है, तथा उसके चारों ओर विराट प्रकृति का अस्तित्व है। प्जेन्य, विद्युत, प्रभंजन, सूय इत्यादि नैसर्िक शक्तियों में देवताओं की कल्पना सामान्य बुद्धि के लिए स्वभावतः ही सुझने के योग्य हैं। इसलिए प्रारम्भ में ऐसी कल्पना थी कि देवता अनेक हैं। प्राचीन आयों की सब शाखाओं में इस प्रकार के अनेक प्राकृतिक देवताओं की कल्पना पाई जाती है। परन्तु आगे चल कर जेसे जैसे मनुष्य की बुद्धि का विकास होता गया, वैसे वैसे अनेक देवताओं में सर्वराक्तिमान एकदेव था ईर्वर की कल्पना प्रस्थापित होती गयी। इस प्रकार प्राचीन काल के आर्यों ने अनेक देवता विद िलाद दददिध अनबन अदा: | वनन न १. पातंजल योगसुत्र, डा० भागीरथ मिश्र, 'दो दाब्द ।




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