हिन्दी - सेवा की संकल्पना | Hindi-seva Ki Sankalpna

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Hindi-seva Ki Sankalpna by बाबूराम सक्सेना -Baburam Saksenaविद्यानिवास मिश्र - Vidya Niwas Mishra

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विद्यानिवास मिश्र - Vidya Niwas Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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को ग्रन्थि (कम्प्लेक्स) मन में नहीं हुई कि लोग देखकर हमारे इंग्लैण्ड वाले कया कहूँगे। अपने आचार पर दृढ़ रहे, बिलकुल वैष्णव धर्म का उन्होंने निर्वाह किया । वहाँ से आने के बाद एकदम ये उज्ज्वल नक्षत्र के से हिन्दी में प्रसिद्ध हुए । और वहाँ से बहुत जो ये घूमे-घामे थे, योरोप में, वहाँ से बहुत सी कविताएँ, बहुत सी हास्य कविताएँ लिख कर लाये । 'वियना की सड़क' एक कविता लिखी थी, वहू बहुत प्रसिद्ध हुई, उस पर परोडी भी बनी, बहुत चली और खूब एकदम से इनका नाम विख्यात हो गया । इनकी पुस्तकें इंडियन प्रेस ने छापीं । इंडियन प्रेस के मालिकों से इनका अच्छा प्रेम था और उसके बाद शिक्षा विभाग में उच्च पदाधिकारी भी हो गये । वहाँ भी बड़ी तेजस्विता से इन्होंने काम किया । एकदफे की कथा है कि एक सेक्रेटरी से इनकी कुछ कहा-युनी हो गयी और वह आई० सी० एस० था, उसने अपनी घौंस दिखानी चाहीं, ये क्यों दबते, ये जानते थे कि वह हमारा कुछ नहीं कर सकता, हमारी नौकरी ले नहीं सकता, हम क्यों उससे दबें, बहुत करेगा हमारा तबादला करा देगा या हमारा पदोन्नति-आदेदा (आर्डर आफ प्रमोशन) रोक देगा, इससे अधिक वह कुछ नहीं कर सकता । इन्होंने उससे बहुत खरी-खरी बातें कीं और जोर-जोर से बातें कीं । यहाँ तक कि जब उसके कमरे से ये निकके, तब उसके ढफ्तर वालों ने इनसे पूछा कि कया साहब से आपकी कोई झड़प हो गयी । इस तरह की प्रकृति के हैं वे । वे किसी से दबे नहीं । हिन्दी के प्रदन पर तो और भी नहीं । हिन्दी के लिए जैसे उनके मन में प्रेम और उत्साह है वैसा दुलंभ है । यह भी हमारे बन्धृत्व का प्रबल कारण हूं। हिन्दी के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया, अपने सेवा के जमाने में भी और सेवा से निवृत्त होने के बाद भी । “सरस्वती” की तो आप समझिए कि उन्होंने बिना किसी स्वार्थ के जैसी सेवा की, उसका जोड़ मिलना असम्भव है । आचार्य द्रिंवेदी जी के हाथ में जब तक “सरस्वती” थी तब तक उसका एक निजस्व था । फिर जब द्विवेदी जी ने अवकाश ग्रहण किया तो.. ऐसे लोगों के हाथ में 'सर- स्वती' पड़ी कि जिनका न कोई व्यक्तित्व था, न जिनमें कोई मौलिकता थी, एक पत्र जैसे तैसे चल रहा था । जब वहू जमाना खतम हुआ तब श्रीनारायण जी ने बिना किसी स्वार्थ के उसको अपने हाथ में लिया और जब तक “सरस्वती” बन्द नहीं हों गयी (अभी गत वर्ष तक), तब तक वे उसे चलाते रहे । उसकी उन्होंने ही एक जयन्ती मनायी । फ़िर शती की जयन्ती करने के लिए बहुत कुछ उन्होंने मन में सोच रखा था, लेकिन प्रस वालों ने ऐसा धोखा दिया कि वह काम बन्द हो गया । साहित्य के सिवा उनको कला से भी बहुत प्रेम था । कई कलाकारों को वे हमेशा आश्रय देते रहे । उनमें कमला लंकर, मुसाफिरराम मूर्तिकार, जोशी जी चित्रकार (मध्यप्रदेश, इन्दौर वाले), ये खास हैं। जोशी जी का एक बड़ा ही सुन्दर तैल चित्र गंगा और यमुना के संगम का (प्रयाग का) उन्होंने हमारे कला भवन को दिला दिया । हमारे कला भवन पर विश्वेष कृपा उनकी रहती है और उनको वैसा ही ममत्व है कला भवन पर, जैसा सेरा। यह अतिरिक्त कारण है जिससे हमारी उनकी घनिष्ठता उत्तरोत्तर बढ़ती गयी । अब एक विचित्र बात कला भवन के बारे में सुनावें, एक हंसी की बात है, एकबार मैं उनके पास (दारागंज में बिलकुल मेरे मामाजी के मकान के पास ही उन्होंने मकान बनाया) उनसे मिलने गया । मेरे जामाता हैँ, उनका प्रेस है । वे ले गये उनके पास मुझको कि कुछ काम यहाँ से मिले, उनके प्रेस से । उसी बातचीत के दरम्यान श्रीनारायण जी ने कहा कि इधर हमको कुछ प्राचीन चित्र प्राप्त हुए हैं, हम दिखाते हैं उनको । गये, ले आये तो देखा कि ब्रढ़े सुन्दर ईरानी दौली के चित्र हैं, हमने धीरे से अपने जामाता से कहा कि भाई इसमें से एक चित्र के लिए तुम कहोगे तो तुम्हारी बात मान लेंगे । (जैसे तुम हमारे जामाता वैसे उनके जामाता, जामाता की बात कोई नहीं-नहीं करता), इसमें से हमको वे एक चित्र कछा भवन के लिए दे देंगे । उन्होंने सहसा कहा कि एक चित्र तुम इसमें से पसन्द करके छाँट लो । यह चित्र मैं बनारस न न




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