कठोपनिषद | Kthopnishadh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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योगादप्रिविद्याप्युप निषदित्युच्य- ते। तथा च वश्ष्यति--सग _ ठोका अम्ृतत्व॑ भजन्तें” ( क० उ० १।१। १३ ) इत्यादि । ननु॒ चोपनिषच्छब्देनाध्ये- तारो ग्रन्थमप्यमिठपन्ति । उप- निषदमधी पहे5ध्यापयाम इति च । एवं नेष दोषो5विद्या दिसंसार- देतुविद्वरणादे। . सदेधात्वथस्य ग्रन्थमात्रडसम्भवादिदायां च शा सम्भवात्‌ । ग्रन्थापि ताद्थ्येन तच्छब्दत्वोपपत्ते:, आयुर्वें घ्रत- मित्यादिवत्‌ । तसादिद्यायां धुख्यया.. ब्ृत्योपनिषच्छब्दो बर्तते अन्ये तु मक्स्पेति।.. , एवसुपनिपन्नि्ंचनेनैव विशि _ छोड्धिकारी विद्यायापुक्तः । दिष- विशिष्ट उक्तो विधायाः परं | अर्थके योगसे “उपनिषदू कही. जाती है | ““खर्गछोकको प्राप्त होने वाले पुरुष अमरत्व प्राप्त करते हैं” ऐसा आगे कहेंगे भी । ग्रज्ा--किन्तु अध्ययन करने वाले तो “उपनिषदू” शब्दसे ग्रन्थ- का भी उल्लेख करते हैं, जेसे--'इम उपनिषदू पढ़ते हैं अथवा पढ़ाते हैं”? इत्यादि । समाधान--ऐसा कहना भी. दोषयुक्त नहीं है । संसारके हेतवृ- भूत. अविद्या आदिके विशरण आदि जो कि '“सदू? घानुके अर्थ हैं, प्रन्थमात्रमें तो. सम्भव नहीं हैं किन्तु विद्यामें सम्भव हो सकते हैं । ग्रन्थ भी विद्याके ही छिये है; सलिये वह भी उस शब्दसे कद्दा जा सकता है; जेते [ आयुदद्धिमें उपयोगी होनेके कारण ] “ख्रत आयु ही दे” ऐसा कहा जाता है| इसलिये “उपनिषदू” शब्द विद्यामें मुख्य बृत्तिसे प्रयुक्त होता है तथा. ग्रन्थमें गोणी द्वात्तसे । इस प्रकार “उपनिषदू” दाब्दका निवंचन करनेसे ही विद्याका विदिष्ट.. अधिकारी बता दिया. गया |...




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