प्रबन्ध - प्रभा | Prabandh-prahba
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
308.79 MB
कुल पष्ठ :
564
श्रेणी :
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ओमप्रकाश - Om Prakash
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धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)हल
ब्य
ध्यौन देने पर विदित होगा कि प्रथम वाक्य यदि सूक्ति के
समान होता है तो अधिक आकर्षक होता हैं; कहीं हमको परि-
भाषा देनी पड़ती है; कहीं किपी तथ्य को सालकर चने है; कहाँ
ऐतिडदासिक दृष्टि होता! रखता पड़ता है, तथा कहीं केवज्ञ कल्पना
के घोड़े पर ही उड़ दिया जाता है। परन्तु आकरिमिक छाएम्म
( कएकरछिंए 009पं02 ) निश्चय डी पाठक के सानस पर
वधिक प्रेघांव डालता है । छाप: लेखक को सुख-वाक्यों का सतत
कर स्वयं अपना सागे बनाना चाहिए ।
निबंध का प्रारंभ केवल प्रथम परिच्छेद में ही नहीं प्रत्येक प रिच्छेद
में ज॑यता हुआ होना चाहिए । में उन लोगों से सहमत नहीं जो
प्रारंभ तथा अंत को ही सब कुछ सपगाकर मध्य को कोई महूर्नहीं
_ दते। जिंस समय भी शिथिजता जावेगी, पाठक लेख को पढ़ने
से बिरक्त हो जावेगा; संभव है वह पूरा लेख पढ़े बिना हीं आपके
सादित्यके विषय में कोईर थायी सस्मति बनाले । ऐसी दशा में परी-
त्षार्थीको बड़ी हानि होगी । छास्तु, उसे तो इस बात का प्रयत्न करना
चाहिए कि उसका लेख झादि से अंत तक आक्षक बना रहे ।
निबंध का झंत या उपसंहार पाठक के मस्तिष्क पर स्पाथी
छाप छोड़ता है । इसके भी अतेक ढंग हो सकते हैं। हम यहां
कोई सियस नहीं बना सकते । कु लोग किसी लोकोकि, पथ या
उद्घरण में पने लेख का अवसान करते हैं; कुछ लोग सामयिक .
लेखों का अंत एक उत्साहवधक ाशाबाद में करते हू । भावा-
त्मक निबंघों का अंत तो कल्पना या रंग में होना ही चाहिए ।
इमारे कुछ लेखों का अंत इस प्रकार हुआ है
(१) अनुभव के बिना हम यह सोच ही नहीं पाते कि यह
संसार प्रेम करने का--मित्रता ज ढड्ने का-स्थल नहीं; यहाँ दो
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