प्रबन्ध - प्रभा | Prabandh-prahba

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Prabandh-prahba by ओमप्रकाश - Om Prakashधीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma

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धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हल ब्य ध्यौन देने पर विदित होगा कि प्रथम वाक्य यदि सूक्ति के समान होता है तो अधिक आकर्षक होता हैं; कहीं हमको परि- भाषा देनी पड़ती है; कहीं किपी तथ्य को सालकर चने है; कहाँ ऐतिडदासिक दृष्टि होता! रखता पड़ता है, तथा कहीं केवज्ञ कल्पना के घोड़े पर ही उड़ दिया जाता है। परन्तु आकरिमिक छाएम्म ( कएकरछिंए 009पं02 ) निश्चय डी पाठक के सानस पर वधिक प्रेघांव डालता है । छाप: लेखक को सुख-वाक्यों का सतत कर स्वयं अपना सागे बनाना चाहिए । निबंध का प्रारंभ केवल प्रथम परिच्छेद में ही नहीं प्रत्येक प रिच्छेद में ज॑यता हुआ होना चाहिए । में उन लोगों से सहमत नहीं जो प्रारंभ तथा अंत को ही सब कुछ सपगाकर मध्य को कोई महूर्नहीं _ दते। जिंस समय भी शिथिजता जावेगी, पाठक लेख को पढ़ने से बिरक्त हो जावेगा; संभव है वह पूरा लेख पढ़े बिना हीं आपके सादित्यके विषय में कोईर थायी सस्मति बनाले । ऐसी दशा में परी- त्षार्थीको बड़ी हानि होगी । छास्तु, उसे तो इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि उसका लेख झादि से अंत तक आक्षक बना रहे । निबंध का झंत या उपसंहार पाठक के मस्तिष्क पर स्पाथी छाप छोड़ता है । इसके भी अतेक ढंग हो सकते हैं। हम यहां कोई सियस नहीं बना सकते । कु लोग किसी लोकोकि, पथ या उद्घरण में पने लेख का अवसान करते हैं; कुछ लोग सामयिक . लेखों का अंत एक उत्साहवधक ाशाबाद में करते हू । भावा- त्मक निबंघों का अंत तो कल्पना या रंग में होना ही चाहिए । इमारे कुछ लेखों का अंत इस प्रकार हुआ है (१) अनुभव के बिना हम यह सोच ही नहीं पाते कि यह संसार प्रेम करने का--मित्रता ज ढड्ने का-स्थल नहीं; यहाँ दो




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