दर्शन - विज्ञान | Darshan Vigyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जग यृः रु कक भारतीय दादोनिक चिन्तन-धारा का ऋमिक विकास ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन समय से दी भारतीय तत्त्व- चिन्तन की दो दार्शनिक विचार-प्रवृत्तियाँ रददती आई हैं । प्रथम श्रचनत्ति अतिभा या प्रज्ञामूलक ( इंट्युनिष्टिक ) है जो तत्त्वों का विवेचन प्रतिभा द्वारा ही करती है। द्वितीय प्रवृत्ति तकसूलक ( रेशनलिष्टिक ) है जो तत्त्वों का विवेचन तार्किक बुद्धि से करती है। ऋग्वेद का ऋषि अपनी प्रज्ञामूलक प्रतिभा से जगत्‌ के मूलतत्त्व की व्याख्या करते हुए अद्त तत्त्व को खोज निकालता है तथा यह कह उठता हे. अनीद्वातं स्वघया तदेकम्‌ सष्टि के आदि में एक तत्त्व वायु के बिना ही प्रपनी शक्ति से जीवित था | तो तकंमूलक श्रदृत्ति से दूसरा ऋषि कह उठता है कि _ संगच्छध्वं संवद्ध्व॑ सं वो मनांसि जानतामू मानव तुम लोग आपस मे मिलो किसी विषय पर परस्पर विवेचन करो तथा एक दूसरे के हृदय में स्पन्द्ति भावों को समसने का प्रयास करा जिससे वह परम सत्य प्रत्यक्ष होगा । बेदिक युग इन्हों दोनों प्रवृत्तियों की मान्यता थी । काल-क्रम बिक अज्ञायूलक तथा तकमूलक इन्हीं दोनों प्रवृत्तियों के पारस्परिक संयोग से उपनिषदों की उत्पत्ति हुई । उपनिषदू-प्रतिपादित . तत्त्व-ज्ञान की अंतिम परिणक्ति




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