सक्षिप्त सूरसागर | Sanchipt Sursagar

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Sanchipt Sursagar by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ अेम मरेम सब कोइ कहै प्रेम न चीन्दे कोय । आठ पहर भीना रहे प्रेम कहावे साय ॥ जा घट प्रेम न संचरे सो घट जानु मसान । जेसे खाठ लाहार की सांस बेत बिन प्रान ॥। अरेस तो ऐसा कीजिए जैसे चन्द चकोर । घीच टूटि भ्रुई मां गिरै चितवे वाही झोर ॥ अधिक सनेही माछुरी दूजा अल्प सनेह । जबहीं जऊ ते बीछुरै तबही थागे देह ॥ जहाँ प्रेम तह नेम नहि. तहाँ न बुधि व्योहार । प्रेम मगन जब सन भया तब कौन शिने तिथि बार ॥। प्रेस भाव इक चाहिये मेष झनेक बनाय । भावे यह में बास कर भावे बन में जाय ॥ जोगी जंगम सेवड़ा संन्यासी दुरवेस । बिना प्रेम पहुंचे नहीं दुरठभ सतगुरु देस ॥। जब छगि मरने से डरे तब ठगि प्रेमी नाहि । बड़ी दूर है प्रेम घर समुसि लेहु मन माहि ॥ अ्रेम भक्ति का गेह हे ऊँचा बहुत इकत । सीस काटि पग तर घरै तब पहुंचे घर संत ॥। परमेश्वर से विरह जोच को व्याकुल कर देता है। साखी । बिरहिन दे संदेसरा सुना हमारे पीव । जल बिन मच्छी क्यो जिये पानी में का जीव ॥। बिरद्द तेज तन में तपे अंग सबे झकुछाय । घट सूना जिव पीव मे मौत ट्ूंढ़ि फिर जाय ॥ बिरह जलती दुखि कर साई झआामे घाय । अम बूंद से छिरकि के जठती लई बुमाय ॥




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