प्रकृति का खिलौना | Prakrati Ka Khilona

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Prakrati Ka Khilona by प्रकाश वर्मा - Prakash Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१५) दोनो कुछ कालान्तर के पदचात्‌ दोनो एक दूसरे को देख ले | प्रकार की प्रति न होती थी 1 डाक्टर हर वार थभ्राता । सम्भाल जाता । पर वह श्रमी संतरे में वाहर न हुयी थी । श्राखिर चचल को मा ने उससे बाली रानी जाश्ना उस के पिता को सूचना दे श्रा्मो ।” रानी ने मुह गे एक दाव्द भी नहीं निराला श्रार तत्परता के साथ उठ खड़ी हो गयी 1 थे वर्षा हो गयी थी. । वादल उपी प्रकार गरजे गज फरबमा रहे गे ऐसा महसूस हो रहा था रात को इन्द्रराज का भयानक प्रकोप होगा 1 जैसे ही रानी ने धघन्टी वजाई श्रौर उसवा पिता वात्र प्ाना दोला “क्यो, क्या कार्य है ? रानी श्राखे नीचा किये, उसवी शयों से न भर श्राया था । वह एक श्रपारघन को भाति गदन नीचा किय सदा थी । उसी वाक्य को दोहराया रायी बडी मुश्किल से सिसिसिया भरती, “चचल मेरी कार से टकरा गयो श्रौर वट हा।स्पटल में हूं ।”' ठीक तो है ना ?”' *नही, श्रभी वह सतरे से वाहर नही है ।” चचल के पिया ने एफ भी शब्द मु ह से नही वोला श्रौर स्तब्घ सा खड़ा रह गरा सुन रदा हैं जो सच है ? तो फिर ये क्यों श्रायी ? धोखा ? नहीं वहीं रानी स्वयं सारी हे केसे घोखा ?”' पर दूसरे ही क्षण सम्भल गया श्री गम्मीरता के मे बोला चलो तो फिर मैं चलता हूँ । रानी घूमती हू! झाचल मे जो भासू चचल के गुणी के कारण लटक कर बाहर धरा ये उपयों पी रर, कार की ध्रौर चचल के पिता के पोछे पीछे चलने लत । घीरे धीरे दुखी तरगो के संग रानी खत्म हुयो । सूर्य घडी के ध्नुसार उदय तो भाया था पर यह चादलो में हो भटड़ा रहा था । हत्की हल्की सुस घौर चेन देने वाली वर्षा वरस रही थी । घामिक लोग घमें की भावनाभो के धनुमार धघपनी ुष्टा मोर मे हैसियत के भ्नुसार ज्वार डाल रहे थे । कदूतर उपर ते होचे दाने इग रहे थे ।




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