सखी ग्रन्थ | Sakhi Granth

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Sakhi Granth by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
(3 ) + के पुण्य, पाप रूप संचित कर्मोका नाश हों जाता है। पुण्य पाप रूप कमहों घासनाकों उत्पत्ति ्वारा शरोरास्तरकी पात्ति कराते चाले हैं, उनके नाश होनेसे मुमुजुको किसी लोक भोगकी कामना नहीं होती, श्रतएव उसका लिंग ( सच्म ) शरोर भी सोकान्तरमें नहीं जाता यथाः-- भी 'नजाने को स्वग नर है । हरि जाने को नाहिं । जज हज भर थ ५ क्र जिहिं डरसे सबलोग डरतु हैं। सो डर हमरे नाहिं ॥ पाप पुण्य की शंका नाई । स्वर्ग नके नहिं जादीं। कहह्टि कबीर सुनो हो सन्तो।जहद्दाका पद तहाँ समादीं बख ! जैसे गरहमें स्थित दीपकका मकाश तेलकी समाभि पश्चात्‌ ग्रहमें ही लय दो जाता है तैसेही पारव्य कर्म ( भोग ') समात हीनिपर मन इन्द्रिय सहित मुसुन्नुके प्राणु,भी शसेरके स्साथही अपने २ कारण स्वरूपमें लथ दो जाते हैं। यथाः-- जब दिल मिला द्याल सों, तब कछु अन्तर नाहिं । पाला गलि पानी भया, यों हरिजन हरि माहिं ॥ लौन गला पानी मिला, चहुरि न भारिहें गन 1 हरिजन हरिसों मिलिरहा, काल रहा सिर धून 0 इस चिपयर्भ शुति भगवती इस भकार साक्ी देती है। कि,-' *न तस्य घाणा उत्कामन्ति” “झात्रेव समचलीयन्ते”चिसुक्तश्ध घिमु- च्यते” इत्यादि । भाव यह है कि जैसे मरयणुफ्रे अनन्त: श्वक्षानी' लोगोके घाण चासनालुसार लोकान्तरमें जाते हैं, उस प्रकार: बासना रहित मुसुन्ुझे माण लोकान्तरमें नहीं जाते किन्तु शरीर के समं ( भीतर ) ही लय हो जाते हैं। यदि यहीं पर मुमुखुके सरीरान्त पश्चाव्‌ चैंतन्य भागकी सियति पर कोई शंका करे तो उसका समाधान यदद दे कि,*-चित्स्वरूप सात्तात्कारके पूर्व भी




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now