पाठालोचन | Pathalochan

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Pathalochan by डॉ मिथिलेश कांति - Dr. Mitilesh Kantiडॉ विमलेश कांति - Dr. Vimlesh Kanti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ .......................................... पाठालोचन चुद्ध पाठ प्रस्तुत करती हैं । यह विचारधारा यद्यपि ठीक नहीं है किन्तु फिर भी - इसमें यथेष्ट सत्य है । इसी विचारधारा के कारण भारतवर्ष के धार्मिक ग्रथों की प्रतियों में यथेष्ट जाल किया गया है । उदाहरणायथे झ्रयोध्या में श्रावण कुन्ज में .... मानस के बालकांड की प्रति सुरक्षित हैं । इस प्रति का लिपिकाल बाद में बदलकर सं० १६६१ कर दिया गया । इस परिवर्तन के उपराँत इस प्रति के संबंध में यह प्रवाद. _ चलाया गया कि यह प्रति कवि द्वारा संशोधित है । इसी प्रकार राजापुर में मानस के अयोध्याकाँड की एक अत्यंत प्रसिद्ध प्रति है। इस प्रति के संबंध में कहा जाता है _ कि यह गोस्वामी जी के हाथ की लिखी प्रति है । डा० माता प्रसाद गुप्त ने इस प्रति की श्रंतरंग परीक्षा करके इस झनुश्र ति को भूठा सिद्ध कर दिया है। इनके अतिरिक्त मानस के विभिन्‍न काँडों की १९वीं शताब्दी की भ्रनेक प्रतियाँ मिलती हैं जिनमें जाल कर उन्हें कवि के जीवनकाल का बनाने का प्रयत्न किया गया है। गणना तथा अन्य प्रकार की परीक्षाप्रों द्वारा प्रतियों की प्रमाणिकता की जाँच की जाती है। यह जाँच अत्यंत प्रावव्यक तथा महत्वपूर्ण है । प्रतियों की परीक्षा के उपरांत उनके पाठों का मिलान किया जाता है । इस . मिलान का उद्दइय प्रतियों के परस्पर .सम्बन्ध को निश्चित करना होता है जिन्हें क्रम मुख्य तथा. गौण सम्बन्ध कहां जाता है । प्रतियों में परस्पर सम्बन्धों को वंदावृक्ष रूप में प्रस्तुत करना ही इस विभाग का उद्दु दय है । ४ पाठ-निर्माण उर८०८घाभं0 प्रतियों के वंशवृक्ष निर्मित हो जाने के बाद प्रतियों की स्थिति स्पष्ट हो जाती है श्र यह मालूम हो जाता है कि कौन सी प्रतियाँ स्वतंत्र शाखा की हैं श्रौर कौन सी प्रतियां पाठ की दृष्टि से ऊपर की पीढ़ी में श्राती हैं ॥ प्रतियों की इन स्थितियों के ज्ञान होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि पाठ-निर्माण में कौन-सी प्रति कितनी सहायक है । प्रतियों की इन स्थितियों तथा . इनके सापेक्षिक महत्व को जान लेने के. पश्चात्‌ इनके आधार पर पाठ-निर्माण किया जाता है । यह पाठ-निर्माण कुछ नियमों के ्राघार पर होता है । संक्षेप में कुछ प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं-- क समस्त स्वतन्त्र शाखाओं में प्राप्त पाठ मुल ग्र थ का पाठ है । ख सामान्यत स्वत्त्र ब्ाखाग्रों के बहुमत का पाठ मूल ग्रन्थ का पाठ है अर्थात्‌ प्रतियों की संख्या का बहुमत नहीं वरन्‌ स्वतन्त्र शाखाओं के बहुमल का महत्व है । यह नियम बहुत कड़ाई से लागू नहीं किया जा सकता है । यदि सभी दाखाएं समान रूप से विरवसनीय हों तंभी यह नियम पूर्णतः लाग होता है । ं न ग यदि स्वतन्त्र शाखाशों की बराबर-बराबर संख्या की प्रतियाँ दो भिन्‍न-. भिन्न पाठ देती हैं तो ऐसी स्थिति में मूल पाठ पूर्ण निश्चय के साथ नहीं जाना जा . सकता । ऐसी स्थिति में क




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