विवेकानंद साहित्य खंड - ६ | Vivekanand Sahitya part-vi

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Vivekanand Sahitya  part-vi by स्वामी विवेकानन्द - Swami Vivekanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- हि कुदुलुनूनदपटनाददुस्कुसात्पुपदुटदुनसमडारससुरादुन इनकम अल 3 विवेकानन्द साहित्य १६ दिष्य--तो देखिए न महाराज, बाहर की सहायता भी आवइयक है ? स्वामी जी--हाँ, है। परन्तु बात यह है कि भीतर पदाथं न रहने पर बाहर की कितनी ही सहायता से कुछ फल नहीं होता । आत्मानुभ्रुति के लिए एक अब- सर सभी को मिलता है, सभी ब्रह्म जो हैं । ऊँच-नीच का भेद ब्रह्म-विकास के तारतम्य मात्र से होता है । समय आने पर सभी का पूर्ण विकास होता है । शास्त्र में भी यही कहा गया है, कालेनात्मनि विन्दति । दिष्य--महासज, ऐसा कब होगा ? शास्त्रों से जान पड़ता है, हमने बहुत जन्म अज्ञान में बिताये हैं । स्वामी जी--डर क्या है ? अब जब तू यहाँ आ गया है, तब इसी जन्म में तेरा बन जायगा । मुवित, समाधि--ये सब ब्रह्मप्रकाद के पथ पर प्रतिबन्ध को दूर करने के नाम मात्र हैं, क्योंकि आत्मा तो स्वेदा ही सूये के समान चमकती रहती है । केवल अज्ञानरूपी बादल ने उसे ढक लिया है । वह हटा कि सूर्य भी प्रकट हुआ । तभी भिद्यते हृदयग्रन्थि: आदि अवस्थाएँ आती हैं । जितने पथ देखते हो वे सभी इस प्रतिबन्ध रूपी मेघ को दूर करने का उपदेश देते हैं। जिसने जिस भाव से आत्मानुभव किया, वह उसी भाव से उपदेश कर गया है, परन्तु सबका उद्देश्य है आत्मज्ञान--आत्मददशन । इसमें सब जातियों को, सब प्राणियों .को समान अधिकार है । यही सावंभौम मत है । शिष्य--महाराज, शास्त्र के इस वचन को जब मैं पढ़ता या सुनता हूँ, तब आत्मतत्त्व के अभी तक प्रत्यक्ष न होने के कारण मन छटपटाने लगता है । . स्वामी जी--इसीको “व्य'्कुलता' कहते हैं । यह जितनी बढ़ेगी, प्रतिबन्ध रूपी बादल उतना ही नष्ट होगा, उतना ही श्रद्धाजनित समाधान प्राप्त होगा । दाने: बने: आत्मा 'करतलामलकवत्‌' प्रत्यक्ष होगी । अनुभूति ही धर्म का प्राण है। कुछ आचार तथा विधि-निषेघों को सब मान कर चल सकते हैं । कुछ का पालन भी सब कर सकते हैं, परन्तु अनुभूति के लिए कितने लोग व्याकुल होते हैं ? व्याकुलता, ईदवर-लाभ या आत्मज्ञान के निमित्त उन्मत्त होना ही यथाथे धर्में- _ प्रवणता है । भगवान्‌ श्री कृष्ण के लिए गोपियों की जेसी अदम्य उन्मत्तता थी, वैसी ही आत्मदश॑न के लिए होनी चाहिए । गोपियों के सन में भी स्त्री-पुरुष का किचित्‌ भेद था, परन्तु वास्तविक आत्मज्ञान में वह भेद ज़रा भी नहीं रहता । ... बात करते हुए स्वामी जी ने जयदेव लिखित “गीतगोविन्द” के विषय में कहा--श्री जयदेव संस्कृत भाषा के अन्तिम कवि थे । उन्होंने कई स्थानों में भाव की अपेक्षा श्रुति-मधुर पदबिन्यास पर अधिक ध्यान दिया है । देखो, गीत- गोविन्द के--




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