ध्वन्यालोक: | Dhvanyaloka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| व ] ६९८-ररामायण तथा महाभारत में अंगीरस का विवेचन १९९---उक्त विषय में निष्कष २००-अंगी रस के विवेचन की आवश्यकता २०१--रचना के रसप्रवण होने पर अलड्लार के अभाव में भी काब्य उपादेय दो जाता है इस बात का उदाइरण २०२-अक्षुण्ण वस्तु से रस की दुष्टि २०३--गुणीमूतब्यज्ञथ से प्रतिभा की अनन्तता और नवीनता का विवेचन २०४-प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार २०५--प्रतिभा के गुण से काव्य में किस प्रकार अनन्तता आती डे इस बात का विबेचन २०६--वाच्याथ की अपेक्षा भी काव्य में नबीनता आ जाती है २०७--अवस्था भेद इत्यादि का विवेचन २०८--उक्त विषय में प्रश्न २०९--वस्तुयें अपने विशिष्ठ अथ में ही प्रयुक्त की जाती हैं सामान्य के साथ विशिष्ट का भी योग रददता है जिससे एक ही वस्तु अनेक रूपों में आया करती है २११--प्रत्येक दाशनिक की दृष्टि में शब्द का विशिष्ट अथ ही मानना पड़ेगा २११--काव्य की अनन्तता में उक्ति वेचित््य का योग २१२--अवस्था इत्यादि भेद की शोभा रस और औदचित्य से हो होती दे | २१३--काव्य की अनन्तता का उपसंहार २१४--काव्यों में कवियों के भाव मिलजाने का देतु २१५--दो कवियों के भावों में जो संवाद ( मेल ) होता है उसके प्रकार २१६--प्रकारों की उपादेयता पर विचार २१७--पूवस्थिति का अनुयायी भी काव्य आत्मतत्त्व के भिन्न होने पर सदोष नहीं माना जा सकता २१८--वस्तु योजना के मेल में तो दोष होता दो नहीं २१९--प्रस्तुत प्रकरण का उपसंह्ार २२०--कवियों को निद्णंक होकर कविता करने का उपदेश २२१--उपसंद्ारात्मक कारिकाओं में ग्रंथ के विषय इत्यादि का उल्लेस्व रैरे डेप है रेप, ० रैरे५डे १३५४४ रे्र६ रै २५८ १२६२ १२६५, १३६८ रै २७६ १७८ रै ३८ ३ रै २८६८ १२८९ १३८९ १३९० १३९१ श्द्९्् १२९४ ११४०७ ११४०३ १४०५, २१४०८




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