कल्याण | Kalyan
श्रेणी : इतिहास / History, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
35.67 MB
कुल पष्ठ :
549
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)+# श्रीगणेदाद्वारा भक्त वरेण्यकों अपने खरूपका परिचय # न
“एााणायणाणाणायायतयतयुयतयुएल्इुएयतयल्युएयएइएतुतएतस्एुसतए।यस्एतइुएस्तए। डाटा
श्रीगणेशाद्यारा बक्त वरेष्यकों अपने खरूपका परिचय
वि विष्णी थे दाकी च सूर्ये मयि नराधिप । यामेद्डुद्धियाँगः स सम्यग्योगो मतों मम ॥
हसेव जगदयस्पात् रजासि पालयामि च । कृत्वा नानाविध॑ वेष॑ संहरामि खलीलया ॥
हमेव ... महाविष्णुरहमेव .. सदाशिवः। अहमेव.. महाशक्तिरहमेवायंमा . प्रिय !
हमेको चुर्णा नाथों जातः पश्चविधः पुरा । अज्ञानान्मां न जानन्ति जगत्कारणकारणम् ॥
तोग्तिरापों धरणी मत्त आकाशमारुतौ । ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्न ठोकपाला दिशों दूश ॥
खवों मनवों गावों मलवः पशाबो5$पिं च । सरितः सागर यक्षा बुक्षाः पश्षिगणा अपि ॥
गरैकबिंदातिः खर्गी नागा: सप्त चनानि च । मचुष्याः पर्वताः साध्याः सिद्धा रक्षोगणास्तथा ॥
हूं साक्षी जगयष्टुरलिप्तः सर्वेकर्ममिः । अविकारो5प्रमेयोहमव्यक्तों विश्वगो5ब्ययः ॥
हमेल पर. ब्रह्माव्ययानन्दात्मकं चप । मोहयत्यस्रिलान् माया श्रेष्ठाच् मम नरानसून ॥
( श्रीगणेशपुराणान्तर्त श्रीगणेशगीता १ । २१-२९ )
गवान् श्रीगणेशा कहते हैं--नरेश्वर वरेण्य ! श्रीशिव; विष्णु» शक्ति; सूय और मुझ गणेद्म जो अमेदबुद्धिरूप
उसीको मैं सम्यक् योग मानता हूँ; क्योंकि मैं ही नाना प्रकारके वेष धारण करके अपनी लीलसे लगत्की सुष्टि
र संदार करता हूँ । प्रिय नरेश ! मैं ही महाविष्णु हूँ; मैं ही सदाशिव हूँ; मैं ही मद्दादाक्ति हूँ और मैं ही सूव हूँ ।
दी समस्त प्राणियोंका स्वामी हूँ और पूवकालमें पाँच रूप धारण करके प्रकट हुआ था । मैं ही जगत्के कारणोंका
हूँ; किंतु लोग अश्ञानवश मुझे इस रूपमें नहीं जानते । मुझसे अग्नि; जल; प्रथ्वी; आकाश वायु» ब्रह्मा, विष्णु; झद्र;
दसों दिशाएँ: वसु) मनु, मनुपुन्र, गौ, पु» नदियाँ; समुद्र, यक्ष, बक्ष, पक्षीगण; इक्कीस खर्ग, नाग, सात वन,
बंत» साध्यगणः सिंद्धगण तथा राक्षसगण उत्पन्न हुए हैं । मैं ही सबका साक्षी जगच्नशु ( सू्य ) हूँ । मैं सम्पूर्ण कंमेंसि
त॒ नहीं होता । मैं निर्विकार, अप्रमेय; अव्यक्त) विश्वव्यापी और अविनाशी हूँ । नरेश्वर ! मैं ही अव्यय एवं
रूप पखरह्म हूँ । मेरी माया उन सम्पूर्ण श्रेष्ठ मानवौको भी मोहमें डाल देती है ।
भ् मी झ्द |
अजो5ब्ययो5हं भूतात्मानादिरीश्वर एव च। आस्थाय जिगुणां मायां भवामि बढुयोनिषु ॥
अधमापचयों धमौपचयों हि यदा भवेत्। साधून्संरक्षितुं डु्शस्ताडितुं सम्भवास्यहस ॥
उच्छिदयाधर्मनिचयं धर्म संस्थापयामि च। दृन्मि दुर्शश्व दे्यांश्र नालाठीलाकरो मुद्दा ॥
(३९-११)
मैं ही अजन्मा; अविनाशी, सबंभूतात्मा; अनादि ईश्वर हूँ और मैं दी त्रिगुणमयी मायाका आश्रय ले अनेक
| प्रकट होता हूँ । जब अधमकी दृद्धि होती है और धमंका हास दोने लगता है; तब साधुजनोंकी रक्षा और
घ करनेके लिये मैं अवतार लेता हूँ । अधमं-राशिका नादा करके धमकी स्थापना करता हूँ । दुष्ट दैव्योको मारता
सामन्द नाना प्रकारकी लीलाएँ करता हूँ !
जाए लिप सनााकी भा
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