कल्याण | Kalyan

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He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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+# श्रीगणेदाद्वारा भक्त वरेण्यकों अपने खरूपका परिचय # न “एााणायणाणाणायायतयतयुयतयुएल्‍इुएयतयल्‍युएयएइएतुतएतस्‍एुसतए।यस्‍एतइुएस्‍तए। डाटा श्रीगणेशाद्यारा बक्त वरेष्यकों अपने खरूपका परिचय वि विष्णी थे दाकी च सूर्ये मयि नराधिप । यामेद्डुद्धियाँगः स सम्यग्योगो मतों मम ॥ हसेव जगदयस्पात्‌ रजासि पालयामि च । कृत्वा नानाविध॑ वेष॑ संहरामि खलीलया ॥ हमेव ... महाविष्णुरहमेव .. सदाशिवः। अहमेव.. महाशक्तिरहमेवायंमा . प्रिय ! हमेको चुर्णा नाथों जातः पश्चविधः पुरा । अज्ञानान्मां न जानन्ति जगत्कारणकारणम्‌ ॥ तोग्तिरापों धरणी मत्त आकाशमारुतौ । ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्न ठोकपाला दिशों दूश ॥ खवों मनवों गावों मलवः पशाबो5$पिं च । सरितः सागर यक्षा बुक्षाः पश्षिगणा अपि ॥ गरैकबिंदातिः खर्गी नागा: सप्त चनानि च । मचुष्याः पर्वताः साध्याः सिद्धा रक्षोगणास्तथा ॥ हूं साक्षी जगयष्टुरलिप्तः सर्वेकर्ममिः । अविकारो5प्रमेयोहमव्यक्तों विश्वगो5ब्ययः ॥ हमेल पर. ब्रह्माव्ययानन्दात्मकं चप । मोहयत्यस्रिलान्‌ माया श्रेष्ठाच्‌ मम नरानसून ॥ ( श्रीगणेशपुराणान्तर्त श्रीगणेशगीता १ । २१-२९ ) गवान्‌ श्रीगणेशा कहते हैं--नरेश्वर वरेण्य ! श्रीशिव; विष्णु» शक्ति; सूय और मुझ गणेद्म जो अमेदबुद्धिरूप उसीको मैं सम्यक्‌ योग मानता हूँ; क्योंकि मैं ही नाना प्रकारके वेष धारण करके अपनी लीलसे लगत्‌की सुष्टि र संदार करता हूँ । प्रिय नरेश ! मैं ही महाविष्णु हूँ; मैं ही सदाशिव हूँ; मैं ही मद्दादाक्ति हूँ और मैं ही सूव हूँ । दी समस्त प्राणियोंका स्वामी हूँ और पूवकालमें पाँच रूप धारण करके प्रकट हुआ था । मैं ही जगत्‌के कारणोंका हूँ; किंतु लोग अश्ञानवश मुझे इस रूपमें नहीं जानते । मुझसे अग्नि; जल; प्रथ्वी; आकाश वायु» ब्रह्मा, विष्णु; झद्र; दसों दिशाएँ: वसु) मनु, मनुपुन्र, गौ, पु» नदियाँ; समुद्र, यक्ष, बक्ष, पक्षीगण; इक्कीस खर्ग, नाग, सात वन, बंत» साध्यगणः सिंद्धगण तथा राक्षसगण उत्पन्न हुए हैं । मैं ही सबका साक्षी जगच्नशु ( सू्य ) हूँ । मैं सम्पूर्ण कंमेंसि त॒ नहीं होता । मैं निर्विकार, अप्रमेय; अव्यक्त) विश्वव्यापी और अविनाशी हूँ । नरेश्वर ! मैं ही अव्यय एवं रूप पखरह्म हूँ । मेरी माया उन सम्पूर्ण श्रेष्ठ मानवौको भी मोहमें डाल देती है । भ् मी झ्द | अजो5ब्ययो5हं भूतात्मानादिरीश्वर एव च। आस्थाय जिगुणां मायां भवामि बढुयोनिषु ॥ अधमापचयों धमौपचयों हि यदा भवेत्‌। साधून्‌संरक्षितुं डु्शस्ताडितुं सम्भवास्यहस ॥ उच्छिदयाधर्मनिचयं धर्म संस्थापयामि च। दृन्मि दुर्शश्व दे्यांश्र नालाठीलाकरो मुद्दा ॥ (३९-११) मैं ही अजन्मा; अविनाशी, सबंभूतात्मा; अनादि ईश्वर हूँ और मैं दी त्रिगुणमयी मायाका आश्रय ले अनेक | प्रकट होता हूँ । जब अधमकी दृद्धि होती है और धमंका हास दोने लगता है; तब साधुजनोंकी रक्षा और घ करनेके लिये मैं अवतार लेता हूँ । अधमं-राशिका नादा करके धमकी स्थापना करता हूँ । दुष्ट दैव्योको मारता सामन्द नाना प्रकारकी लीलाएँ करता हूँ ! जाए लिप सनााकी भा




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