इण्टरमीडिएट हिंदी चयन | Intermediate Hindi Selections
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12.69 MB
कुल पष्ठ :
234
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)11
प्रदीप था ।. उसमें ब्रह्माड को भस्मीभूत कर देने की शक्ति थी। यह वही
ज्योति हे जिसका प्रकाश सूय॑ में विद्यमान हे एवं जिसका दूसरा नाम अग्निदेव हैं ।
वह प्रदीप भगवान रामचंद्र के पवित्र नाम के अतिरिक्त और कुछ नहीं हे ।
यद्यपि राम नाम को क्षुद्र प्रदीप के साथ तुलना करना अनुचित है, परन्तु यह नाम
का दोष नहीं हे हमारे क्षुद्र भाग्य की क्षुद्रता का दोष है कि उनका भक्तिभाव अब
हममें ऐसा ही रह गया हे।
कभी हम लोग भी सुख से दिन बिता रहे थे, कभी हम भी भू मंडल पर विद्वान
और वीर दाब्द से पुकारे जाते थे, कभी हमारी कीर्ति भी दिगूदिगंतव्यापिनी थी,
कभी हमारे जय्जयकार से भी आकादा गू जता था और कभी बड़े बड़े सम्राट हमारे
कृपाकटाक्ष को भी प्रत्याशा करते थे--इस बात का स्मरण करना भी अब हमारे
लिए अशुभचिंतक हो रहा हैं। पर कोई माने या न माने यहां पर खुले शब्दों में
यह कहे बिना हमारी आत्मा नहीं मानती कि अवश्य हम एक दिन इस सुख के
अधिकारी थे। हम लोगों में भी एक दिन स्वदेश भक्त उत्पन्न होते थे, हममें
सौशभ्रात्र और सौहाद का अभाव न था, ग्रुभक्ति और पितृ-भक्ति हमारा नित्य
कम था, शिष्ट-पालन और दुष्ट-दमन ही हमारा कत्तंब्य था । अधिक क्या कहें--
कभी हम भी ऐसे थे कि जगत का लोभ हमें अपने कत्तंव्य से नहीं हटा सकता था ।
पर अब वह बात नहीं हू और न उसका कोई प्रमाण ही हू ..!
हमारे दूरदर्शी महर्षि भारत के मंद भाग्य को पहले ही अपनी दिव्य दृष्टि से
देख चुके थे कि एक दिन ऐसा आवेगा कि न कोई वेद पढ़ेगा न वेदांग, न कोई इति-
हास का अनुसन्धान करेगा और न कोई पुराण ही सुनेगा । सब अपनी क्षमता
को भूल जायंग। देश आत्मज्ञान-शून्य हो जायगा। इसलिए उन्होंने अपने
बुद्धि कौशल से हमारे जीवन के साथ “'राम' नाम का दृूढ़ सम्बन्ध किया था। यह
उन्हीं मह्षियों की कृपा का फल है कि जो देश अपनी दाक्ति को, तेज को, बल को,
प्रताप को, बुद्धि को और धम्मं को अधिक क्या--जो अपने स्वरूप तक को भूल
रहा है, वह इस शोचनीय दशा में भी राम नाम को नहीं भूला है। और जब
तक “राम स्मरण हे, तब तक हम भूलने पर भी कुछ भूले नहीं हे।.
महाराज दशरथ का पुत्रस्नेह, श्रीरामचंद्र जी की पितृभक्ति, लक्ष्मण और
शत्रुघ्न की भरतजी का स्वा्थत्याग, वशिष्ठजी का प्रताप, विदवामित्र
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