पंजाब, प्रांत | Panjab Prant

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Panjab Prant by रामनारायण मिश्र - Ramnarayan Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ जुलाई या अगस्त मास में आती है । १८४६ इ० में मेलस की बाढ़ से शाहपुर बह गया ! १८५६ चर श्प७८ ई० में सिन्ध नदी इतनी बढ़ी कि मुजफ्फर- गढ़ और डेरा गाज़ी खाँ नगर डूब गये और इन जिलों के कई भागों में वाद का पानी भर गया । श८९९१८९३ और १९०४ के चनाव छर भेलम में जोर की बाढ़ छाई रैप£३ई० में केलम ने काश्मीर का. कोहाला पुल तोड़कर वहां दिया । एक योरुपीय लेखक ने पंजाब की जलवायु का इस प्रकार बणन किया है! । भारतवर्ष के शेप भागों की तरह पस्ाव सें भी ३ऋतु होती है । श्रीष्स वर्षा और शीत । ग्रीष्म ऋतु छप्रेल से झ्ारम्भ होती है.। पर मी में हो इतनी गरसी पढ़ने लगती है कि गेहूँ और जौ की फसल पक जाती है और इनकी कटाई हो जाती है। अप्रैल से जून तक प्राय: वर्षा नहीं होती है. । पछुझा दवा चलती है । सिन्ध नदी के ससुस्थल की झोर से आती है. | इसके सामने चलने से ऐसा जाना पढ़ता है: मानों कोई खुली हुई विशाल 'आाग की पट्टी के सामने जा रहा हो । छाया में थर्मामीटर का पारा ऊपर उठकर १९२ अंश फारेनहाइट तक पहुँच जाता है इस ऋतु में हवा का आनन्द लेने के लिये प्राय: ४ या पांच वजे उठना चाहिये सूर्य के उदय होते ही गरमी आरम्भ हो जाती है । ७ बजने के बाद आवश्यकता पड़ने पर.ही गोरा मनुष्य अपने घर के वादर जाता है: । धूप में वाहर जाने पर उसे छाता या टोपी से अपने सिर की रक्षा कर लेनी 'चाहिये । प्रात: पाँच बजे या सूर्योदय के बाद शीघ्र ही सब दुरवाजे बन्द कर लेने चाहिये । नहदर चातों मिलने जुलने के लिये एक छोटे दरवाजा थोड़ा खोलना चाहिये । इस प्रकार यह - घर एक जेल की तरह अंधेरा हो जाता है । चाहर जब तक हवा तेज़ चलती रहती है। तब तक खस की टट्टी से घर के कमरे छुछ ठंडे: रक्खे, जा सकते हैं । इन टट्रियों पर लगातार पानी छिड़- कना पड़ता है । रात्रि में प खा चलता है जिसके यहां पंखा[या टट्टी नहीं दोती हे । उसे गरमी की 'झसदा वेदना सहनी पढ़ती है. । घर के भीतर ताप- कम ९४ अंश और ११३ अंश के चीच में रदता है. । भूगोल इस गरमी में मनुप्य ओर पशु दोनों की दम 'फूलने लगती है. । धीरे धीरे गोरे. मनुष्य की भूख और नींद कम हो जाती है । उसका चल और उत्साह भी छूट जाता है । बनस्पति नप्ट हो जाती है। सभी . चीज कु्स कर सूख जाती हैं । घास . जड़ तक जली हुई सी दिखाई देती है । भाड़ियाँ पर पेड़ सरे हुये से मालूम होते हैं । मिट्टी सूखकर कड़ी हो. जाती है । कहीं कहीं इसमें दरारें पड़ जाती है। सच कहीं उजाड़, उदासी सी-छाई रहती है । अन्त मैं जून मास में लूक चलना वन्द दो जाता हैं । कुछ समय तक कोई हवा नहीं चलती हैं । यह गरमी अर भी अधिक भीपण हो जाती है । इन दिनों खस की टट्रियों से भी कोई लाम नहीं होता है । सब लोग चर्पा के लिये तरसने लगते हैं । पर च का कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता है । फिर दक्षिण- पूर्व की ओर से दवा चलने लगती है. । आर बपां ब्यारम्भ हो जाती है. । फिर भी समसंत प्रान्त में वर्षा नहीं दोती हे लाहोर में वहुत थोड़ा पानी बरसतता है । मुल्तान में और भी कम वर्षा होती हे । पश्चिसी पप्ाव के किसान को कत्रिम सिंचाई के वल पर ही फसल उगानी पढ़ती है । यहाँ वर्पां का कोई भरोसा नहीं रहता है. । रे दक्षिण ओर पूर्वे से आने वाली हवाओं के साथ ' पहले तूफान और वादल श्राति हैं। यह तूफानी वर्षा प्रति दिन या दूसरे तीसरे दिन होती हे । हिमालय प्रदेश में जुलाई मास में चर्पो '्ारम्भ होती है आधे सितम्बर तक प्रायः समूचे मान्त में वर्षा का अन्त हो जाता है. | जुलाई में श्रक्षों में नये हरे पत्ते --लिकल आते हैं । घास हरी हो जाती है। कहीं दरियली इतनी तेजी से बढ़ती है; कि. वह झझपनी सीमा के भीतर नहीं रहती है। इस समय किसान. को हल जोतने बोने और नराने में बड़ा परिश्रम करना पड़ता है. 1. घान की फसल तो जून में चोदी जाती है. । थ चार छः सप्तादद की वर्पा के वाद कभी कभी दो तीन दिन तक लगातार पानी बरसता है। फिर आकाश साफ हो जाता है । कभी कभी कई सप्ताह तक खुला रहता है.। और वर्षा नहीं होती है । इसके वाद एक दो सप्ताद तक फिर वर्षा ऋतु रहती .




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