प्रेमचंद रचनावली खंड 2 | Premchand Rachanavali Vol. 2

Book Image : प्रेमचंद रचनावली खंड 2  - Premchand Rachanavali Vol. 2

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

Author Image Avatar

प्रेमचंद - Premchand

प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

Read More About Premchand

रामविलास शर्मा - Ramvilas Sharma

No Information available about रामविलास शर्मा - Ramvilas Sharma

Add Infomation AboutRamvilas Sharma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
14 प्रेमचंद रचनावली-2 ही लिखना पड़ा। श्री बांकेबिहारीजी की आज्ञा को कौन टाल सकता था? यदि ठाकुरजी को हार म़ाननी पड़ी तो केवल एक अहीर से जिसका नाम चेतू था। वह बूढ़ा दरिद्र आदमी था। कई साल से उसकी फसल खराब हो रही थी। थोड़े ही दिन हुए श्री बांकेबिहारीजी ने उस पर इजाफा लगान की नालिश करके उसे ऋण के बोझ से और दबा दिया था। उसने यह चंदा देने से इंकार किया यहां तक कि रुक्का भी न लिखा। ठाकुरजी ऐसे द्रोही को भला केसे क्षमा करते? एक दिन कई महात्मा चेतू को पकड़ लाए। ठाकुरद्वारे के सामने उस पर मार पड़ने लगी। चेतू भी बिगड़ा। हाथ तो बंधे हुए थे मुंह से लात-घूंसों का जवाब देता रहा और जब तक जबान बंद न हो गई चुप न हुआ। इतना कष्ट देकर भी ठाकुरजी को संतोष न हुआ उसी रात को उसके प्राण भी हर लिए प्रात काल चौकीदार ने ध्वाने में रिपोर्ट की। दारोगा कृष्णचन्द्र को मालूम हुआ मानो ईश्वर ने घर बैठे-बिठाए सोने की चिड़िया उनके पास भेज दी। तहकीकात करने चले। लेकिन महंतजी की उस इलाके में ऐसी धाक जमी हुई थी कि दारोगाजी को कोई गवाही न मिल सकी। लोग एकांत में आकर उनसे सारा वृत्तांत कह जाते थे पर कोई अपना बयान नहीं देता था। इस प्रकार तीन-चार दिन बीत गए। महंत जी पहले तो बहुत अकड़े रहे। उन्हें निश्चय था कि यह भेद न खुल सकेगा। लेकिन जब उन्हें पता चला कि दारोगाजी ने कई आदमियों को फोड़ लिया है तो कुछ नरम पड़े। अपने मुख्तार को दारोगाजी के पास भेजा। कुबेर की शरण ली। लेन-देन की बातचीत होने लगी। कृष्णचन्द्र ने कहा-मेरा हाल तो आप लोग जानते हैं कि रिरवत को काला नाग समझता हूं। मुख्तार ने कहा-हां यह ती मालूम है किंतु साधु-संतों पर कृपा रखनी ही चाहिए। इसके बाद दोनों सज्जनों में कानाफूसी हुई। मुख्तार ने कहा-नहीं सरकार पांच हजार बहुत होते हैं। महंतजी को आप जानते हैं वह अपनी टेक पर आ जाएंगे तो चाहे फांसी ही हो जाय पर जौ-भर न हटेंगे। ऐसा कौजिए कि उनको कष्ट न हो आपका भी काम निकल जाय। अंत में तीन हजार पर बात पक्की हो गई। पर कड़्वी दवा को खरीदकर लाने उसका काढ़ा बनाने और उसे उठाकर पीने में बड़ा अंतर है। मुख्तार तो महंत के पास गया और कृष्णचन्द्र सोचने लगे यह मैं क्या कर रहा हूं? एक ओर रुपयों का ढेर था और चिंता-व्याधि से मुक्त होने की आशा दूसरी ओर आत्मा का सर्वनाश और परिणाम का भय। न हां करते बनता था न नहीं। जन्म-भर निलॉभ रहने के बाद इस समय अपनी आत्मा का बलिदान करने में दारोगाजी को बड़ा दुख होता था। वह सोचते थे यदि यही करना था तो आज से पच्चीस साल पहले ही क्यों न किया अब तक सोने की दीवार खड़ी कर दी होती। इलाके ले लिए होते। इतने दिनों तक त्याग का आनंद उठाने के बाद बुढ़ापे में यह कलंक पर मन कहता था इसमें तुम्हारा क्या अपराध? तुमसे जब तक निभ सका निबाहा। भोग-विलास के पीछे अधर्म नहीं किया लेकिन जब देश काल प्रथा और अपने बंधुओं का लोभ तुम्हें कुमार्ग की ओर ले जा रहे हैं तो तुम्हारा दोष? तुम्हारी आत्मा अब भी पवित्र है। तुम ईश्वर के सामने अब भी निरपराध हो। इस प्रकार तर्क करके दारोगाजी ने अपनी आत्मा को समझा लिया। लेकिन परिणाम का भय किसी तरह पीछा न छोड़ता था। उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली थी। हिम्मत न खुली थी। जिसने कभी किसी पर हाथ न उठाया हो वह सहसा तलवार का




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now