ऐसे थे हमारे निराला | Aise The Hamare Nirala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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156 ऐसे थे हमारे निराला यानी माता, पिंता, भाई, बहन, चाचा. चाथी, स्त्री संसार में कोई नहीं। जीवम का लक्ष्य मेरे बाल्यकाल से है परम पदलाभ। मेरे सिर पर छः नाबालक भतीजे आदि का पालन भार अर्पित हैं। इसलिए अभी मैने नौकरी करना स्वीकार किया है।........में एक साधारण चित्त मनुष्य हूँ। विट्रन्मण्डली के सामने मेरा परिचय मूखों में है। “परे पिता-पितृव्य इस स्टेट में फौजी अफसर थे। गय्यमान्य थे। मेरा जन्म यहीं हुआ। शिक्षा यहीं सिली। हिन्दी मैंने किसी व्यक्ति विशेष से नहीं सीखी..... . महिषादल सुझपर कृपा करते हैं। महाराज दो भाई हैं। बड़े गजा सत्तीप्रसाद गर्ग 'और छोटे राजा गोपाल प्रसाद गर्ग। इनके पूर्व पुरूष बांदा के रहने बालें थे। ... हिन्दी सिखाइये।” 1923 में कलकत्ते से निकलने चाले साप्ताहिक पत्र *मतबाला' से जुड़े तो 'सतवाला' के तुक पर 'नियला” उपनाम रखा। फलत: सूर्यकान्त अब सूर्यन्माम्त च्रिपाठी 'नियला' नाम से ख्यात हुए। ये ही “निराला कहलाये। *“जुही की कली निराला जी की पहली कविता है जी 1916 में लिखी गई। तब वे निराला नहीं बने थे। इसे उन्होंने 1919 में पं. महावीर प्रसाद ह्विंबेदी के पास 'सरस्वतो' में प्रकाशनार्थ भेजा था लेकिन बह लौटा दी गई थी। चैसे वर्ष की अवस्था से वे बजभाषा काव्य रचना करने लगे थे। खड़ी बोली तो उन्होंने बाद में सीसी थी। * जुही की कली” मुक्त छंद में लिखी जाने से 'खर्चों का विषय बनी। निराला *'मतबाला मण्डल' में रहते हुए कविता लिखते रहे और धीरे-धीरे उनकी धाक जमने लगी। पर जब 'मतवाला' के मालिक महादेव प्रसाद सेठ निराला के जजाय उम्र पर विशेष अनुग्रह दिखाने लगे तो निराला ने कलकत्ता से कूच करने की ठानी। उनके प्रशंसक नबजादिक लाल ने * अनामिका' नाम से निराला की प्रारम्भिक रचनाएं प्रकाशित कर दी थीं। 1926 में निराला बीमार पड़े तो काशी चले आये जहां जयशंकर प्रसाद, विनोद शंकर व्यास अगदिं ने सेवा-सुश्रूषा की। कुछ काल बाद वे गढ़ाकोला चले गये और फिर वहां से कलकत्ता! [929 में निराला जी कलकत्ते से लखनऊ चल आये जहां दुलारे लाल भार्गव ने 'सुधा' में काम दे दिया। तभी 'परिमल' नामक युगान्तस्कारी काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। वे देशभर के कवि सम्मेलनों तथा साहित्य सम्मेलन के अधिवेशनों में पहुंचकर अपनी रचनाएं सुनाते और जनता को मुग्ध करते रहे। देवी सरस्वती उनके कण्ठ पर विराज रही थीं। उनका कबिता लांचने का ढंग इंतना निराला होता कि आलोचकों की जुबानें बन्द होने लरगीं। लखनऊ में निराला ने निबन्ध लिखनें शुरू किये और आलोचना की नई रैली अपनाई। से उपन्यास और कहानियां भी लिख रहे थे। फलत: गद्य तथा पद




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